________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
३६५
नियमव्युत्सर्गप्रभृतिसकलपरमार्थक्रियाकांडाडंबरसमृद्धस्य उपयोगत्रय-विशालस्य परमेश्वरस्य शास्त्रस्य द्विविधं किल तात्पर्यं, सूत्रतात्पर्य शास्त्रतात्पर्यं चेति। सूत्रतात्पर्यं पद्योपन्यासेन प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् , शास्त्रतात्पर्यं त्विदमुपदर्शनेन। भागवतं शास्त्रमिदं निर्वाणसुंदरीसमुद्भवपरमवीतरागात्मकनिर्व्याबाधनिरन्तरानङ्गपरमानन्दप्रदं निरतिशयनित्यशुद्धनिरंजननिजकारणपरमात्मभावनाकारणं
समस्तनयनिचयांचितं पंचमगतिहेतुभूतं पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण निर्मितमिदं ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहृदयवेदिन: परमानंदवीतरागसुखाभिलाषिण: परित्यक्तबाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहप्रपंचा: त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरतनिजकारण
नियम ,व्युत्सर्ग आदि सकल परमार्थ क्रियाकांडके आडंबरसे समृद्ध है ( अर्थात् जिसनें परमार्थ क्रियाओंका पुष्कल निरूपण है) और जो तीन उपयोगोंसे सुसंपन्न है ( अर्थात् जिसमें अशुभ , शुभ और शुद्ध उपयोगका पुष्कल कथन है)-ऐसे इस परमेश्वर शास्त्रका वास्तवमें दो प्रकारका तात्पर्य है: सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य। सूत्रतात्पर्य तो पद्यकथनसे प्रत्येक सूत्रमें (-पद्य द्वारा प्रत्येक गाथाके अंतमें) प्रतिपादित किया गया है। और शास्त्रतात्पर्य यह निम्नानुसार टीका द्वारा प्रतिपादित किया जाता है: यह (नियमसार-शास्त्र) 'भागवत शास्त्र है। जो (शास्त्र) निर्वाणसुंदरीसे उत्पन्न होनेवाले, परमवीतरागात्मक, निराबाध, निरंतर और अनंग परमानंदका देनेवाला है, जो 'निरतिशय, नित्यशुद्ध , निरंजन निज कारणपरमात्माकी भावनाका कारण है, जो समस्त नयों के समूहसे शोभित है, जो पंचम गतिके हेतुभूत है और जो पाँच इंद्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र-परिग्रहधारीसे ( निग्रंथ मुनिवरसे) रचित है-ऐसे इस भागवत शास्त्रको जो निश्चयनय और व्यवहारनयके अविरोधसे जानते हैं, वे महापुरुषसमस्त अध्यात्मशास्त्रोंके हृदयको जाननेवाले और परमानंदरूप वीतराग सुखके अभिलाषीबाह्य-अभ्यंतर चौबीस परिग्रहोंके प्रपंचको परित्यागकर, त्रिकाल-निरुपाधि स्वरूपमें लीन निज कारण
१। भागवत = भगवानका; दैवी; पवित्र। २। निराबाध = बाधा रहित; निर्विघ्न। ३। अनंग = अशरीरी; आत्मिक; अतींद्रिय ४। निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है ऐसे; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय। ५। हृदय = हार्द; रहस्य; मर्म। (इस भागवत शास्त्रको जो सम्यक् प्रकारसे जानते हैं, वे समस्त अध्यात्मशास्त्रोंके हार्दके ज्ञाता हैं।)
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com