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नियमसार
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( वसंततिलका) यावत्सदागतिपथे रुचिरे विरेजे तारागणैः परिवृतं सकलेन्दुबिंबम्। तात्पर्यवृत्तिरपहस्तितहेयवृत्तिः स्थेयात्सतां विपुलचेतसि तावदेव।। ३११ ।।
इतिसुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धोपयोगाधिकारो द्वादशमः श्रुतस्कन्धः।।
समाप्ता चेयं तात्पर्यवृत्तिः।
[ श्लोकार्थ:-] जबतक तारागणोंसे घिरा हुआ पूर्णचंद्रबिंब ( पूर्ण चंद्रमा का गोल) गगनमें विराजे (शोभे), ठीक तबतक तात्पर्यवृत्ति (नामकी यह टीका)-कि जिसने हेय वृत्तियोंको निरस्त किया है ( अर्थात् जिसने छोड़ने योग्य समस्त विभाववृत्तियोंको दूर फेंक दिया है वह) –सत्पुरुषोंके विशाल हृदयमें स्थित रहो। ३११ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभ-मलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) शुद्धोपयोग अधिकार नामका बारहवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ।
इसप्रकार ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित) तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीकाके श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ।
<(समाप्त)>
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