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नियमसार
३५५
णवि कम्मं णोकम्मं णवि चिंता व अट्टरुद्दाणि। णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं।। १८१ ।।
नापि कर्म नोकर्म नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे। नापि धर्मशुक्लध्याने तत्रैव च भवति निर्वाणम्।। १८१ ।।
सकलकर्मविनिर्मुक्तशुभाशुभशुद्धध्यानध्येयविकल्पविनिर्मुक्तपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेत
त्।
सदा निरंजनत्वान्न द्रव्यकर्माष्टकं, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वान्न नोकर्मपंचकं च, अमनस्कत्वान्न चिंता, औदयिकादिविभावभावानामभावादातरौद्रध्याने न स्तः, धर्मशुक्लध्यानयोग्यचरमशरीराभावात्तद्वितयमपि न भवति। तत्रैव च महानंद इति।
गाथा १८१ अन्वयार्थ:-[ न अपि कर्म नोकर्म ] जहाँ कर्म और नोकर्म नहीं है, [न अपि चिन्ता] चिंता नहीं है, [न एव आर्तरौद्रे ] आर्त और रौद्र ध्यान नहीं है, [न अपि धर्मशुक्लध्याने ] धर्म और शुक्ल ध्यान नहीं है, [ तत्र एव च निर्वाणम् भवति] वहीं निर्वाण है ( अर्थात् कर्मादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है)।
टीका:-यह, सर्व कर्मोंसे विमुक्त (-रहित) तथा शुभ , अशुभ और शुद्ध ध्यान तथा ध्येयके विकल्पोंसे विमुक्त परमतत्त्वके स्वरूपका कथन है।
(परमतत्त्व) सदा निरंजन होनेके कारण ( उसे ) आठ द्रव्यकर्म नहीं हैं; तीनों काल निरुपाधिस्वरूपवाला होनेके कारण ( उसे) पाँच नोकर्म (-शरीर) नहीं है; मन रहित होनेके कारण चिंता नहीं है; औदयिकादि विभावभावोंका अभाव होनेके कारण आर्त और रौद्र ध्यान नहीं है; धर्मध्यान और शुक्लध्यानके योग्य चरम शरीरका अभाव होनेके कारण वे दो ध्यान नहीं हैं। वही महा आनंद है।
[अब इस १८१ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
रे कर्म नहिं नोकर्म , चिंता, आर्त-रौद्र जहाँ नहीं। है धर्म-शुक्ल सुध्यान नहिं , निर्वाण जानो रे वही ।। १८१।।
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