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शुद्धोपयोग अधिकार
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तथा चोक्तममृताशीतौ
(मालिनी) ज्वरजननजराणां वेदना यत्र नास्ति परिभवति न मृत्यु गतिर्नो गतिर्वा। तदतिविशदचित्तैर्लभ्यतेऽङ्गेऽपि तत्त्वं गुणगुरुगुरुपादाम्भोजसेवाप्रसादात्।।''
तथा हि
(मंदाक्रांता) यस्मिन् ब्रह्मण्यनुपमगुणालंकृते निर्विकल्पेऽक्षानामुच्चैर्विविधविषमं वर्तनं नैव किंचित्। नैवान्ये वा भविगुणगणाः संसृतेर्मूलभूताः तस्मिन्नित्यं निजसुखमयं भाति निर्वाणमेकम्।। ३०० ।।
इसप्रकार ( श्री योगींद्रदेवकृत) अमृताशीतिमें (५८ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि:
" [ श्लोकार्थ:-] जहाँ ( जिस तत्त्वमें ) ज्वर, जन्म और जराकी वेदना नहीं है, मृत्यु नहीं है, गति या आगति नहीं है, उस तत्त्वको अति निर्मल चित्तवाले पुरुष , शरीरमें स्थित होने पर भी, गुणमें बड़े ऐसे गुरुके चरणकमलकी सेवाके प्रसादसे अनुभव करते हैं।"
__ और ( इस १८० वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ):
[ श्लोकार्थ:-] अनुपम गुणोंसे अलंकृत और निर्विकल्प ऐसे जिस ब्रह्ममें (आत्मतत्त्वमें) इंद्रियोंका अति विविध और विषम वर्तन किंचित् भी नहीं ही है, तथा संसारके मूलभूत अन्य (मोह-विस्मयादि) संसारीगुणसमूह नहीं ही हैं, उस ब्रह्ममें सदा निजसुखमय एक निर्वाण प्रकाशमान है। ३००।
* मोह, विस्मय आदि दोष संसारियोंके गुण हैं-कि जो संसारके कारणभूत है।
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