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नियमसार
३५३
णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिद्दा य। ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं।। १८० ।।
नापि इन्द्रियाः उपसर्गाः नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च।
न च तृष्णा नैव क्षुधा तत्रैव च भवति निर्वाणम्।।१८० ।। परमनिर्वाणयोग्यपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत्।
अखंडैकप्रदेशज्ञानस्वरूपत्वात् स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियव्यापार: देवमानवतिर्यगचेतनोपसर्गाश्च न भवन्ति, क्षायिकज्ञानयथाख्यातचारित्रमयत्वान्न दर्शनचारित्रभेदविभिन्नमोहनीयद्वितयमपि, बाह्यप्रपंचविमुखत्वान्न विस्मयः, नित्योन्मीलितशुद्धज्ञानस्वरूपत्वान्न निद्रा, असातावेदनीयकर्मनिर्मूलनान्न क्षुधा तृषा च। तत्र परमब्रह्मणि नित्यं ब्रह्म भवतीति।
गाथा १८० अन्वयार्थ:-[ न अपि इन्द्रियाः उपसर्गाः ] जहाँ इंद्रियाँ नहीं है, उपसर्ग नहीं है, [ न अपि मोहः विस्मयः ] मोह नहीं है, विस्मय नहीं है, [न निद्रा च ] निद्रा नहीं है, [न च तृष्णा] तृषा नहीं है, [न एव क्षुधा ] क्षुधा नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति ] वही निर्वाण है ( अर्थात् इंद्रियादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है)।
टीका:-यह, परम निर्वाणके योग्य परमतत्त्वके स्वरूपका कथन है।
( परमतत्त्व) *अखंड-एकप्रदेशी-ज्ञानस्वरूप होनेके कारण ( उसे ) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र नामकी पाँच इंद्रियोंके व्यापार नहीं हैं तथा देव, मानव, तिर्यंच और अचेतनकृत उपसर्ग नहीं हैं; क्षायिकज्ञानमय और यथाख्यातचारित्रमय होनेके कारण ( उसे) दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ऐसे भेदवाला दो प्रकारका मोहनीय नहीं है; बाह्य प्रपंचसे विमुख होनेके कारण ( उसे) विस्मय नहीं है; नित्य-प्रकटित शुद्धज्ञानस्वरूप होनेके कारण ( उसे) निद्रा नहीं है; असातावेदनीय कर्मको निर्मूल कर देनेके कारण ( उसे) क्षुधा और तृषा नहीं है। उस परम ब्रह्ममें (-परमात्मतत्त्वमें) सदा ब्रह्म (-निवार्ण) है।
* खंडरहित अभिन्नप्रदेशी ज्ञान परमतत्त्वका स्वरूप है इसलिये परमतत्त्वको इंद्रियाँ और उपसर्ग नहीं है।
इन्द्रिय जहाँ नहिं मोह नहिं, उपसर्ग, विस्मय भी नहीं। निद्रा , क्षुधा, तृष्णा नहीं, निर्वाण जानो रे वहीं ।। १८०।।
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