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शुद्धोपयोग अधिकार
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पीडायोग्ययातनाशरीराभावान्न पीडा, असाता-वेदनीयकर्माभावान्नैव विद्यते बाधा, पंचविधनोकर्माभावान्न मरणम्, पंचविधनोकर्म-हेतुभूतकर्मपुद्गलस्वीकाराभावान्न जननम्। एवंलक्षणलक्षिताक्षुण्णविक्षेपविनिर्मुक्तपरमतत्त्वस्य सदा निर्वाणं भवतीति।
(मालिनी) भवभवसुखदु:खं विद्यते नैव बाधा जननमरणपीडा नास्ति यस्येह नित्यम्। तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि स्मरसुखविमुखस्सन मुक्तिसौख्याय नित्यम्।। २९८ ।।
( अनुष्टुभ् ) आत्माराधनया हीनः सापराध इति स्मृतः। अहमात्मानमानन्दमंदिरं नौमि नित्यशः।। २९९ ।।
पीड़ायोग्य "यातनाशरीरके अभावके कारण पीड़ा नहीं है; असातावेदनीय कर्मके अभावके कारण बाधा नहीं है; पाँच प्रकारके नोकर्मके (शरीर) अभावके कारण मरण नहीं है; पाँच प्रकारके नोकर्मके हेतुभूत कर्मपुद्गलके स्वीकारके अभावके कारण जन्म नहीं है। ऐसे लक्षणोंसे लक्षित , अखंड, विक्षेपरहित परमतत्त्वको सदा निर्वाण है।
[अब इस १७९ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] इस लोकमें जिसे सदा भवभवके सुखदुःख नहीं हैं, बाधा नहीं है, जन्म, मरण और पीड़ा नहीं है, उसे (-उस परमात्माको) मैं, मुक्तिसुखकी प्राप्ति हेतु, कामदेवके सुखसे विमुख वर्तता हुआ नित्य नमन करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ। २९८।
[श्लोकार्थ:-] आत्माकी आराधना रहित जीवको सापराध (-अपराधी) माना गया है। (इसलिये) मैं आनंदमंदिर आत्माको (आनंदके गृहरूप निजात्माको) नित्य नमन करता हूँ। २९९।
* यातना = वेदना; पीड़ा। (शरीर वेदनाकी मूर्ति है।)
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