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नियमसार
३५१
णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि णीडा व विज्जदे बाहा। णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।। १७९ ।।
नापि दुःखं नापि सौख्यं नापि पीडा नैव विद्यते बाधा। नापि मरणं नापि जननं तत्रैव च भवति निर्वाणम्।। १७९ ।।
इह हि सांसारिकविकारनिकायाभावान्निर्वाणं भवतीत्युक्तम्।
निरुपरागरत्नत्रयात्मकपरमात्मन: सततान्तर्मुखाकारपरमाध्यात्मस्वरूपनिरतस्य तस्य वाऽशुभपरिणतेरभावान्न चाशुभकर्म अशुभकर्माभावान्न दुःखम्, शुभपरिणतेरभावान्न शुभकर्म शुभकर्माभावान्न खलु संसारसुखम्,
गाथा १७९ अन्वयार्थ:-[ न अपि दुःखं ] जहाँ दुःख नहीं है, [ न अपि सौख्यं ] सुख नहीं है, [ न अपि पीडा ] पीड़ा नहीं है, [न एव बाधा विद्यते ] बाधा नहीं है, [न अपि मरणं ] मरण नहीं है, [न अपि जननं] जन्म नहीं है, [ तत्र एव च निर्वाणम् भवति] वहीं निर्वाण है ( अर्थात् दुःखादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है)।
टीका:-यहाँ, (परमतत्त्वको) वास्तवमें सांसारिक विकारसमूहके अभावके कारण 'निर्वाण है ऐसा कहा है।
सतत अंतर्मुखाकार परम-अध्यात्मस्वरूपमें लीन ऐसे उस निरुपराग-रत्नत्रयात्मक परमात्माको अशुभ परिणतिके अभावके कारण अशभ कर्म नहीं है और अशभ कर्मके अभावके कारण दुःख नहीं है; शुभ परिणतिके अभावके कारण शुभ कर्म नहीं है और शुभ कर्मके अभावके कारण वास्तवमें संसारसुख नहीं है;
१। निर्वाण = मोक्ष; मुक्ति। [ परमतत्त्व विकाररहित होनेसे द्रव्य-अपेक्षासे सदा मुक्त ही है।
इसलिये मुमुक्षुओंको ऐसा समझना चाहिये कि विकाररहित परमतत्त्वके संपूर्ण आश्रयसे ही अर्थात् उसीके श्रद्धान-ज्ञान-आचरणसे वह परमतत्त्व अपनी स्वाभाविक मुक्तपर्यायमें परिणमित होता है।] २। सतत अंतर्मुखाकार = निरंतर अंतर्मुख जिसका आकार अर्थात् रूप है ऐसे। ३। निरुपराग = निर्विकार; निर्मल।
दुःख सुख नहीं पीड़ा जहाँ नहीं और बाधा है नहीं। नहिं जन्म है, नहिं मरण है, निर्वाण जानों रे वहीं ।। १७९ ।।
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