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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार ३५६ ( मंदाक्रांता) निर्वाणस्थे प्रहतदुरितध्वान्तसंघे विशुद्धे कर्माशेषं न च न च पुनानकं तच्चतुष्कम्। तस्मिन्सिद्धे भगवति परब्रह्मणि ज्ञानपुंजे काचिन्मुक्तिर्भवति वचसां मानसानां च दूरम्।।३०१ ।। विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं। केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ।। १८२ ।। विद्यते केवलज्ञानं केवलसौख्यं च केवलं वीर्यम्। केवलदृष्टिरमूर्तत्वमस्तित्वं सप्रदेशत्वम्।। १८२ ।। भगवतः सिद्धस्य स्वभावगुणस्वरूपाख्यानमेतत्। निरवशेषेणान्तर्मुखाकारस्वात्माश्रयनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मविलये जाते ततो भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनः केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलवीर्य [ श्लोकार्थ:-] जो निर्वाणमें स्थित है, जिसने पापरूपी अंधकारके समूहका नाश किया है और जो विशुद्ध है, उसमें (-उस परमब्रह्ममें ) अशेष (समस्त) कर्म नहीं है तथा वे चार ध्यान नहीं हैं। उस सिद्धरूप भगवान ज्ञानपुंज परमब्रह्ममें कोई ऐसी मुक्ति है के जो वचन और मनसे दूर है। ३०१। गाथा १८२ अन्वयार्थ:-[ केवलज्ञानं ] ( सिद्धभगवानको) केवलज्ञान, [ केवलदृष्टि: ] केवलदर्शन, [ केवलसौख्यं च] केवलसुख, [ केवलं वीर्यम् ] केवलवीर्य, [अमूर्तत्वम् ] अमूर्तत्व, [ अस्तित्वं ] अस्तित्व और [ सप्रदेशत्वम् ] सप्रदेशत्व [ विद्यते ] होते हैं। टीका:-यह, भगवान सिद्धके स्वभावगुणोंके स्वरूपका कथन है। निरवशेषरूपसे अंतर्मुखाकार (-सर्वथा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), स्वात्माश्रित निश्चय-परमशुक्लध्यानके बलसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोंका विलय होने पर, उस कारणसे भगवान सिद्धपरमेष्ठीको केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य, दृग-ज्ञान केवल , सौख्य केवल , और केवल वीर्यता । होते उन्हें सप्रदेशता, अस्तित्व, मूर्ति-विहीनता ।। १८२।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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