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नियमसार
३३९
सर्वज्ञवीतरागस्य वांछाभावत्वमत्रोक्तम्।
भगवानर्हत्परमेष्ठी साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वात् विश्वमश्रान्तं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मनःप्रवृत्तेरभावादीहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिन: परमभट्टारकस्य, तस्मात् स भगवान् केवलज्ञानीति प्रसिद्धः, पुनस्तेन कारणेन स भगवान् अबन्धक इति।
तथा चोक्तं श्रीप्रवचनसारे
"ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अढेसु। जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो।।''
तथा हि
केवलीको [ईहापूर्वं ] इच्छापूर्वक (वर्तन) [ न भवति ] नहीं होता; [ तस्मात् ] इसलिये उन्हें [ केवलज्ञानी] 'केवलज्ञानी' कहा है; [ तेन तु] और इसलिये [ सः अबन्धकः भणितः ] अबंधक कहा है।
टीका:-यहाँ सर्वज्ञ वीतरागको वांछाका अभाव होता है ऐसा कहा है।
भगवान अहंत परमेष्ठी सादि-अनंत अमूर्त अतींद्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारसे केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंके आधारभूत होनेके कारण विश्वको निरंतर जानते हुए भी और देखते हुए भी, उन परम भट्टारक केवलीको मनप्रवृत्तिका (मनकी प्रवृत्तिका , भावमनपरिणतिका) अभाव होनेसे इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान 'केवलज्ञानी' रूपसे प्रसिद्ध हैं; और उस कारणसे वे भगवान अबंधक हैं।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (५२ वीं गाथा द्वारा) कहा है कि:
“[गाथार्थ:-] ( केवलज्ञानी) आत्मा पदार्थोको जानता हुआ भी उन-रूप परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थोरूपमें उत्पन्न नहीं होता इसलिये उसे अबंधक कहा है।"
और ( इस १७२ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ):
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