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शुद्धोपयोग अधिकार
३३८
गुणगुणिनोः भेदाभावस्वरूपाख्यानमेतत्।
सकलपरद्रव्यपराङ्मुखमात्मानं स्वस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानस्वरूपमिति हे शिष्य त्वं विद्धि जानीहि तथा विज्ञानमात्मेति जानीहि। तत्त्वं स्वपरप्रकाशं ज्ञानदर्शनद्वितयमित्यत्र संदेहो नास्ति।
__(अनुष्टुभ् ) आत्मानं ज्ञानदृग्रूपं विद्धि दृग्ज्ञानमात्मकं।
स्वं पर चेति यत्तत्त्वमात्मा द्योतयति स्फुटम्।। २८७ ।। जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।। १७२ ।।
जानन् पश्यन्नीहापूर्वं न भवति केवलिनः। केवलज्ञानी तस्मात् तेन तु सोऽबन्धको भणितः।। १७२ ।।
विद्धि] ज्ञान आत्मा है ऐसा जान;-[न संदेहः ] इसमें संदेह नहीं है। [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानं ] ज्ञान [ तथा ] तथा [ दर्शनं ] दर्शन [ स्वपरप्रकाशं ] स्वपरप्रकाशक [ भवति ] है।
टीका:-यह, गुण-गुणीमें भेदका अभाव होनेरूप स्वरूपका कथन है।
हे शिष्य! सर्व परद्रव्यसे पराङ्मुख आत्माको तू निज स्वरूपको जाननेमें समर्थ सहजज्ञानस्वरूप जान, तथा ज्ञान आत्मा है ऐसा जान। इसलिये तत्त्व ( –स्वरूप) ऐसा है कि ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्वपरप्रकाशक हैं। इसमें संदेह नहीं है।
[अब इस १७१ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
[ श्लोकार्थ:-] आत्माको ज्ञानदर्शनरूप जान और ज्ञानदर्शनको आत्मा जान; स्व और पर ऐसे तत्त्वोंको ( समस्त पदार्थोको) आत्मा स्पष्टरूपसे प्रकाशित करता है। २८७।
गाथा १७२
अन्वयार्थ:-[ जानन् पश्यन् ] जानते और देखते हुए भी, [ केवलिनः]
जानें तथा देखें तदपि इच्छा बिना भगवान है । अतएव 'केवलज्ञानी वे अतएव ही निबर्ध है ।। १७२।।
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