________________
३३७
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
तथा हि
तथा चोक्तम्
नियमसार
( मंदाक्रांता )
ज्ञानं तावद्भवति सुतरां शुद्धजीवस्वरूपं स्वात्मात्मानं नियतमधुना तेन जानाति चैकम् । तच्च ज्ञानं स्फुटितसहजावस्थयात्मानमारात् नो जानाति स्फुटमविचलाद्भिन्नमात्मस्वरूपात्।। २८६ ।।
CG
णाणं अव्विदिरित्तं जीवादो तेण अप्पगं मुणइ । दि अप्पगं ण जाणइ भिण्णं तं होदि जीवादो ।।
अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो । तम्हा सपरपयासं गाणं तह दंसणं होदि।। १७१ ।।
आत्मानं विद्धि ज्ञानं ज्ञानं विद्वयात्मको न संदेहः । तस्मात्स्वपरप्रकाशं ज्ञानं तथा दर्शनं भवति ।। १७१ ।।
दशा) है; इसलिये अच्युतिको (अविनाशीपनको, शाश्वत दशाको ) चाहने वाले जीव को ज्ञानकी भावना भाना चाहिये । "
और (इस १७० वीं गाथाकी टीकाके कलशरूपसे टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ):
[ श्लोकार्थ :- ] ज्ञान तो बराबर शुद्धजीवका स्वरूप है, इसलिये ( हमारा ) निज आत्मा अभी ( साधक दशामें ) एक ( अपने ) आत्माको नियमसे ( निश्चयसे ) जानता है । और, यदि वह ज्ञान प्रगट हुई सहज दशा द्वारा सीधा ( प्रत्यक्षरूपसे) आत्माको न जाने तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूपसे अवश्य भिन्न सिद्ध होगा! २८६ ।
और इसीप्रकार (अन्यत्र गाथा द्वारा ) कहा है कि :
“[ गाथार्थ:-] ज्ञान जीवसे अभिन्न है इसलिये वह आत्माको जानता है; यदि ज्ञान आत्माको न जाने तो वह जीवसे भिन्न सिद्ध होगा ! "
गाथा १७९
अन्वयार्थः-[ आत्मानं ज्ञानं विद्धि ] आत्माको ज्ञान जान, और [ ज्ञानम् आत्मकः
संदेह नहिं, है ज्ञान आत्मा, आत्मा है ज्ञान रे ।
अतएव निज परके प्रकाशक ज्ञान-दर्शन मार्ग रे ।। १७१ ।।
Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com