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नियमसार
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(वसंततिलका) सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशिमुलंध्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता। तामेव तेन जिननाथपथाधुनाहं याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम्।। २७४ ।।
__(मंदाक्रांता) एको देवः स जयति जिनः केवलज्ञानभानुः कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित्। मुक्तेस्तस्याः समरसमयानंगसौख्यप्रदाया: को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः।। २७५ ।।
(अनुष्टुभ् ) जिनेन्द्रो मुक्तिकामिन्याः मुखपद्मे जगाम सः। अलिलीलां पुनः काममनङ्गसुखमद्वयम्।। २७६ ।।
[श्लोकार्थ:-] (हे जिननाथ!) सद्ज्ञानरूपी नौकामें आरोहण करके भवसागरको लाँघकर, तू शीघ्रता से शाश्वतपुरीमें पहुँच गया। अब मैं जिननाथनाके उस मार्गसे (-जिस मार्गसे जिननाथ गये उसी मार्गसे) उसी शाश्वतपुरीमें जाता हूँ; (क्योंकि) इस लोकमें उत्तम पुरुषोंको ( उस मार्ग के अतिरिक्त) अन्य क्या शरण है ? २७४।
[ श्लोकार्थ:-] केवलज्ञानभानु (-केवलज्ञानरूपी प्रकाशको धारण करनेवाले सूर्य) ऐसे वे एक जिनदेव ही जयवंत हैं। वे जिनदेव समरसमय अनंग (-अशरीरी, अतींद्रिय) सौख्यकी देनेवाली ऐसी उस मुक्तिके मुखकमल पर वास्तवमें किसी अवर्णनीय कान्तिको फैलाते हैं; (क्योंकि) कौन (अपनी) स्नेहमयी प्रियाको निरंतर सुखोत्पत्तिका कारण नहीं होता? २७५।।
[ श्लोकार्थ:-] उन जिनेंद्रदेवने मुक्तिकामिनीके मुखकमलके प्रति भ्रमरलीलाको धारण किया ( अर्थात् वे उसमें भ्रमरकी भाँति लीन हुए) और वास्तवमें अद्वितीय अनंग (आत्मिक ) सुखको प्राप्त किया। २७६ ।
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