SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ३१७ (वसंततिलका) सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशिमुलंध्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता। तामेव तेन जिननाथपथाधुनाहं याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम्।। २७४ ।। __(मंदाक्रांता) एको देवः स जयति जिनः केवलज्ञानभानुः कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित्। मुक्तेस्तस्याः समरसमयानंगसौख्यप्रदाया: को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः।। २७५ ।। (अनुष्टुभ् ) जिनेन्द्रो मुक्तिकामिन्याः मुखपद्मे जगाम सः। अलिलीलां पुनः काममनङ्गसुखमद्वयम्।। २७६ ।। [श्लोकार्थ:-] (हे जिननाथ!) सद्ज्ञानरूपी नौकामें आरोहण करके भवसागरको लाँघकर, तू शीघ्रता से शाश्वतपुरीमें पहुँच गया। अब मैं जिननाथनाके उस मार्गसे (-जिस मार्गसे जिननाथ गये उसी मार्गसे) उसी शाश्वतपुरीमें जाता हूँ; (क्योंकि) इस लोकमें उत्तम पुरुषोंको ( उस मार्ग के अतिरिक्त) अन्य क्या शरण है ? २७४। [ श्लोकार्थ:-] केवलज्ञानभानु (-केवलज्ञानरूपी प्रकाशको धारण करनेवाले सूर्य) ऐसे वे एक जिनदेव ही जयवंत हैं। वे जिनदेव समरसमय अनंग (-अशरीरी, अतींद्रिय) सौख्यकी देनेवाली ऐसी उस मुक्तिके मुखकमल पर वास्तवमें किसी अवर्णनीय कान्तिको फैलाते हैं; (क्योंकि) कौन (अपनी) स्नेहमयी प्रियाको निरंतर सुखोत्पत्तिका कारण नहीं होता? २७५।। [ श्लोकार्थ:-] उन जिनेंद्रदेवने मुक्तिकामिनीके मुखकमलके प्रति भ्रमरलीलाको धारण किया ( अर्थात् वे उसमें भ्रमरकी भाँति लीन हुए) और वास्तवमें अद्वितीय अनंग (आत्मिक ) सुखको प्राप्त किया। २७६ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy