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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार ३१६ अन्यच्च "दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवओग्गा। जुगवं जमा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि।।'' तथा हि (स्रग्धरा) वर्तेते ज्ञानदृष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे सर्वज्ञेऽस्मिन् समंतात् युगपदसदृशे विश्वलोकैकनाथे। एतावुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन् तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम्।। २७३ ।। है; सर्व अनिष्ट नष्ट हुआ है और जो इष्ट है वह सब प्राप्त हुआ है।' और दूसरा भी (श्री नेमिचंद्रसिद्धांतिदेवविरचित बृहद्रव्यसंग्रहमें ४४ वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : “[गाथार्थ:-] छद्मस्थोंको दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है ( अर्थात् पहले दर्शन और फिर ज्ञान होता है), क्योंकि उनको दोनों उपयोग युगपत् नहीं होते; केवलीनाथको वे दोनो युगपत् होते हैं।" और (इस १६० वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं): [ श्लोकार्थ:- ] जो धर्मतीर्थके अधिनाथ (नायक ) हैं, जो असदृश हैं ( अर्थात् जिनके समान अन्य कोई नहीं है) और जो सकल लोकके एक नाथ हैं ऐसे इन सर्वज्ञ भगवानमें निरंतर सर्वतः ज्ञान और दर्शन युगपत् वर्तते हैं। जिसने समस्त तिमिरसमूहका नाश किया है ऐसे इस तेजराशिरूप सूर्यमें जिसप्रकार यह उष्णता और प्रकाश (युगपत् ) वर्तते हैं और जगतके जीवोंको नेत्र प्राप्त होते हैं ( अर्थात् सूर्यके निमित्तसे जीवोंके नेत्र देखने लगते हैं), उसीप्रकार ज्ञान और दर्शन (युगपत् ) होते है (अर्थात् उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवानको ज्ञान और दर्शन एकसाथ होते हैं और सर्वज्ञ भगवानके निमित्तसे जगतके जीवोंको ज्ञान-दर्शन प्रगट होता है)। २७३। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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