________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धोपयोग अधिकार
णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव ।
अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ।। १६१ ।।
ज्ञानं परप्रकाशं दृष्टिरात्मप्रकाशिका चैव ।
आत्मा स्वपरप्रकाशो भवतीति हि मन्यसे यदि खलु।। १६१ ।।
आत्मनः स्वपरप्रकाशकत्वविरोधोपन्यासोऽयम्।
"
इह हि तावदात्मनः स्वपरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत् । ज्ञानदर्शनादिविशेषगुणसमृद्धो ह्यात्मा, तस्य ज्ञानं शुद्धात्मप्रकाशकासमर्थत्वात् परप्रकाशकमेव यद्येवं दृष्टिर्निरंकुशा केवलमभ्यन्तरे ह्यात्मानं प्रकाशयति चेत् अनेन विधिना स्वपरप्रकाशको ह्यात्मेति हंहो जडमते प्राथमिकशिष्य, दर्शनशुद्धेरभावात् एवं मन्यसे न खलु जडस्त्वत्तस्सकाशादपरः कश्चिज्जनः। अथ ह्यविरुद्धा स्याद्वादविद्यादेवता समभ्यर्चनीया सद्भिरनवरतम्। तत्रैकान्ततो ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं न समस्ति; न केवलं स्यान्मते
3
66
३१८
गाथा १६९
अन्वयार्थः-[ ज्ञानं परप्रकाशं ] ज्ञान परप्रकाशक ही है [च] और [ दृष्टि: आत्मप्रकाशिका एव] दर्शन स्वप्रकाशक ही है [ आत्मा स्वपरप्रकाशः भवति ] तथा आत्मा स्वपरप्रकाशक है [इति हि यदि खलु मन्यसे ] ऐसा यदि वास्तवमें तू मानता हो तो उसमें विरोध आता है।
टीका:-यह, आत्माके स्वपरप्रकाशकपने संबंधी विरोधकथन है।
प्रथम तो, आत्माको स्वपरप्रकाशकपना किस प्रकार है ? ( उस पर विचार किया जाता है।) आत्मा ज्ञानदर्शनादि विशेष गुणोंसे समृद्ध है; उसका ज्ञान शुद्ध आत्माको प्रकाशित करने में असमर्थ होनेसे परप्रकाशक ही है; इसप्रकार निरंकुश दर्शन भी केवल अभ्यंतरमें आत्माको प्रकाशित करता है ( अर्थात् स्वप्रकाशक ही है ) । इस विधिसे आत्मा स्वपरप्रकाशक है।”–इसप्रकार हे जड़मति प्राथमिक शिष्य ! यदि तू दर्शनशुद्धिके अभावके कारण मानता हो, तो वास्तवमें तुझसे अन्य कोई पुरुष जड़ ( मूर्ख ) नहीं है ।
दर्शन प्रकाशक आत्मका परका प्रकाशक ज्ञान है ।
निज पर प्रकाशक आत्मा, रे यह विरुद्ध विधान है ।। १६१।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com