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नियमसार
२९५
(अनुष्टुभ् ) 'जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादविरतः सुदृक् । प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः।।''
तथा हि
( मंदाक्रांता) योगी नित्यं सहजपरमावश्यकर्मप्रयुक्तः संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती। तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठ:
स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः।। २५८ ।। अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा। जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा।। १५० ।।
अन्तरबाह्यजल्पे यो वर्तते स भवति बहिरात्मा। जल्पेषु यो न वर्तते स उच्यतेऽन्तरंगात्मा।। १५० ।।
" [ श्लोकार्थ:-] अंतरात्माके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं; अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अंतरात्मा है, क्षीणमोह वह अन्तिम ( उत्कृष्ट ) अंतरात्मा है और उन दोके मध्यमें स्थित वह मध्यम अंतरात्मा है।"
और ( इस १४९ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ):
[ श्लोकार्थ:-] योगी सदा सहज परम आवश्यक कर्मसे युक्त रहता हुआ संसारजनित प्रबल सुखदुःखरूपी अटवीसे दूरवर्ती होता है इसलिये वह योगी अत्यंत आत्मनिष्ठ अंतरात्मा है; जो स्वात्मासे भ्रष्ट हो वह बहिःतत्त्वनिष्ठ (बाह्यतत्त्वमें लीन) बहिरात्मा है। २५८।
गाथा १५० अन्वयार्थ:-[ यः] जो [अन्तरबाह्यजल्पे] अंतर्बाह्य जल्पमें [वर्तते] वर्तता है, [ सः ] वह [ बहिरात्मा ] बहिरात्मा [ भवति ] है; [ यः ] जो [ जल्पेषु ] जल्पोंमें [न वर्तते ] नहीं वर्तता , [ सः ] वह [अन्तरंगात्मा ] अंतरात्मा [ उच्यते ] कहलाता है।
जो बाह्य-अंतर जल्पमें वर्ते वही बहिरातमा है । जो जल्पमें वर्ते नहिं, वह जीव अंतरआतमा ।। १५० ।।
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