________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
२९४
आवश्यकेन युक्तः श्रमण: स भवत्यंतरंगात्मा। आवश्यकपरिहीण: श्रमणः स भवति बहिरात्मा।। १४९ ।।
अत्रावश्यककर्माभावे तपोधनो बहिरात्मा भवतीत्युक्तः।
अभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्वात्मानुष्ठाननियतपरमावश्यककर्मणानवरतसंयुक्त: स्ववशाभिधानपरमश्रमणः सर्वोत्कृष्टोऽन्तरात्मा, षोडशकषायाणामभावादयं क्षीणमोहपदवीं परिप्राप्य स्थितो महात्मा। असंयतसम्यग्दृष्टिर्जघन्यांतरात्मा। अनयोर्मध्यमा: सर्वे मध्यमान्तरात्मानः। निश्चयव्यवहारनयद्वयप्रणीतपरमावश्यकक्रियाविहीनो बहिरात्मेति। उक्तं च मार्गप्रकाशे
( अनुष्टुभ् ) "बहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्यसमयो द्विधा। बहिरात्मानयोर्देहकरणाधुदितात्मधीः।।''
गाथा १४९ अन्वयार्थ:-[ आवश्यकेन युक्तः ] आवश्यक सहित [ श्रमणः ] श्रमण [ सः] वह [अंतरंगात्मा ] अंतरात्मा [ भवति ] है; [आवश्यकपरिहीण:] आवश्यक रहित [ श्रमण: ] श्रमण [ सः ] वह [ बहिरात्मा ] बहिरात्मा [ भवति ] है।
टीका:-यहाँ, आवश्यक कर्मके अभावमें तपोधन बहिरात्मा होता है ऐसा कहा है।
अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयात्मक *स्वात्मानुष्ठानमें नियत परमावश्यक-कर्मसे निरंतर संयुक्त ऐसा जो ‘स्ववश' नामका परम श्रमण वह सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा है; यह महात्मा सोलह कषायोंके अभाव द्वारा क्षीणमोहपदवीको प्राप्त करके स्थित है। असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य अंतरात्मा है। इन दोके मध्यमें स्थित सर्व मध्यम अंतरात्मा हैं। निश्चय और व्यवहार इन दो नयोंसे प्रणीत जो परम आवश्यक क्रिया उससे जो रहित हो वह बहिरात्मा है।
श्री मार्गप्रकाशमें भी (दो श्लोकों द्वारा) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] अन्यसमय ( अर्थात् परमात्माके अतिरिक्त जीव ) बहिरात्मा और अंतरात्मा ऐसे दो प्रकारके हैं; उनमें बहिरात्मा देह-इंद्रिय आदिमें आत्मबुद्धि-वाला होता
* स्वात्मानुष्ठान = निज आत्माका आचरण। (परम आवश्यक कर्म अभेद-अनुपचार
रत्नत्रयस्वरूप स्वात्माचरणमें नियमसे विद्यमान है अर्थात् वह स्वात्माचरण ही परम आवश्यक कर्म है।)
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com