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नियमसार
२९३
( मंदाक्रांता) आत्मावश्यं सहजपरमावश्यकं चैकमेकं कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम्। सोऽयं नित्यं स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराण: वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति।। २५६ ।।
(अनुष्टुभ् ) स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम्। इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्तिशर्मणः।। २५७ ।।
आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा। आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा।।१४९ ।।
[अब इस १४८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] आत्माको अवश्य मात्र सहज-परम-आवश्यक एकको ही-कि जो "अघसमूहका नाशक है और मुक्तिका मूल (-कारण) है उसी को-अतिशयरूपसे करना चाहिये। ( ऐसा करनेसे ,) सदा निज रसके विस्तारसे पूर्ण भरा होनेके कारण पवित्र और पुराण ( सनातन) ऐसा वह आत्मा वाणीसे दूर (वचन-अगोचर) ऐसे किसी सहज शाश्वत सुखको प्राप्त करता है। २५६ ।
[ श्लोकार्थ:-] स्ववश मुनींद्रको उत्तम स्वात्मचिंतन (निजत्मानुभवन) होता है; और यह (निजात्मानुभवनरूप) आवश्यक कर्म ( उसे ) मुक्तिसौख्यका कारण होता है। २५७ ।
* अघ = दोष; पाप। (अशुभ तथा शुभ दोनों अघ हैं।)
रे साधु आवश्यक-सहित वह अन्तरात्मा जानिये । इससे रहित हो साधु जो बहिरात्मा पहचानिये ।। १४९ ।।
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