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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-परमावश्यक अधिकार २९६ बाह्याभ्यन्तरजल्पनिरासोऽयम्। यस्तु जिनलिंगधारी तपोधनाभास: पुण्यकर्मकांक्षया स्वाध्यायप्रत्याख्यानस्तवनादिबहिर्जल्पं करोति, अशनशयनयानस्थानादिषु सत्कारादिलाभलोभस्सन्नन्तर्जल्पे मनश्चकारेति स बहिरात्मा जीव इति। स्वात्मध्यानपरायणस्सन् निरवशेषेणान्तर्मुख: प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तविकल्पजालकेषु कदाचिदपि न वर्तते अत एव परमतपोधन: साक्षादंतरात्मेति। तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः (वसंततिलका) 'स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्। अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्।।'' टीका:-यह, बाह्य तथा अंतर जल्पका निरास (निराकरण, खंडन) है। जो जिनलिंगधारी तपोधनाभास पुण्यकर्मकी कांक्षासे स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, स्तवन आदि बहिर्जल्प करता हैं और अशन, शयन, गमन, स्थिति आदिमें (-खाना, सोना, गमन करना, स्थिर रहना इत्यादि कार्योमें) सत्कारादिकी प्राप्तिका लोभी वर्तता हुआ अंतर्जल्पमें मनको लगाता है, वह बहिरात्मा जीव है। निज आत्माका ध्यानमें परायण वर्तता हुआ निरवशेषरूपसे (संपूर्णरूपसे) अंतर्मुख रहकर (परम तपोधन) प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त विकल्पजालोंमें कभी भी नहीं वर्तता इसीलिये परम तपोधन साक्षात् अंतरात्मा है। - इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें ९० वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि: “[ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार जिससे बहु विकल्पोंके जाल अपनेआप उठते हैं ऐसी विशाल नयपक्षकक्षाको ( नयपक्षकी भूमिको) लांघकर (तत्त्ववेदी) भीतर और बाहर समतारसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे अनुभूतिमात्र एक अपने भावको ( –स्वरूपको) प्राप्त होता है।” Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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