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http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय - परमावश्यक अधिकार
आवासं जह इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं । तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स ।। १४७ ।।
आवश्यकं यदीच्छसि आत्मस्वभावेषु करोषि स्थिरभावम् । तेन तु सामायिकगुणं सम्पूर्णं भवति जीवस्य ।। १४७ ।।
शुद्धनिश्चयावश्यकप्राप्त्युपायस्वरूपाख्यानमेतत् ।
संसारव्रततिमूललवित्रं
इह हि बाह्यषडावश्यकप्रपंचकल्लोलिनीकलकलध्वानश्रवणपराङ्मुख हे शिष्य शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकस्वात्माश्रयावश्यकं यदीच्छसि समस्तविकल्पजालविनिर्मुक्तनिरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्र सहजसुखप्रमुखेषु सततनिश्चलस्थिरभावं करोषि तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य बाह्यषडावश्यकक्रियाभिः किं जातम्, अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः । अतः परमावश्यकेन
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अनन्यबुद्धिवाला रहता हुआ ( - निजात्माके अतिरिक्त अन्यके प्रति लीन न होता हुआ ) सर्व कर्मोंसे बाहर रहता है । २५४ ।
गाथा १४७
अन्वयार्थः-[ यदि ] यदि तू [ आवश्यकम् इच्छसि ] आवश्यकको चाहता है तो तू [आत्मस्वभावेषु] आत्मस्वभावोंमें [ स्थिरभावम् ] स्थिरभाव [ करोषि ] करता है; [ तेन तु ] उससे [ जीवस्य ] जीवको [ सामायिकगुणं ] सामायिकगुण [ सम्पूर्णं भवति ] संपूर्ण होता है। टीका:-यह, शुद्धनिश्चय- आवश्यककी प्राप्तिका जो उपाय उसके स्वरूपका कथन
है।
छह
बाह्य षट्–आवश्यकप्रपंचरूपी नदीके कोलाहलके श्रवणसे ( - व्यवहार आवश्यकके विस्ताररूपी नदीकी कलकलाहटके श्रवणसे ) पराङ्मुख हे शिष्य ! शुद्धनिश्चयधर्मध्यान तथा शुद्धनिश्चय - शुक्लध्यानस्वरूप स्वात्माश्रित आवश्यकको - कि जो संसाररूपी लताके मूलको छेदनेका कुठार है उसे- यदि तू चाहता है, तो तू समस्त विकल्पजाल रहित निरंजन निज परमात्माके भावोंमें सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र और सहज सुख आदिमें- सतत - निश्चल स्थिरभाव करता है, उस हेतुसे ( अर्थात् उस कारण द्वारा) निश्चयसामायिकगुण उत्पन्न होनेपर, मुमुक्षु जीवको बाह्य छह आवश्यकक्रियाओंसे क्या उत्पन्न हुआ ?
आवश्यका कांक्षी हुआ तू स्थैर्य स्वात्मामें करे । होता इसीसे जीव सामायिक सुगुण सम्पूर्ण रे ।। १४७ ।।
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