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नियमसार
२९१
निष्क्रियेण अपुनर्भवपुरन्ध्रिकासंभोगहासप्रवीणेन जीवस्य सामायिकचारित्रं सम्पूर्णं भवतीति।
तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवै:
(मालिनी) "यदि चलति कथञ्चिन्मानसं स्वस्वरूपाद् भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसङ्गः। तदनवरतमंतर्मग्नसंविग्नचित्तो भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम्।।"
तथा हि
( शार्दूलविक्रीडित) यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदुःखापहं मुक्तिश्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम्। बुद्धेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति यः सर्वदा सोयं त्यक्तबहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटवीपावकः।। २५५ ।।
'अनुपादेय फल उत्पन्न हुआ ऐसा अर्थ है। इसलिये अपुनर्भवरूपी ( मुक्तिरूपी) स्त्रीके संभोग
और हास्य प्राप्त करनेमें प्रवीण ऐसे निष्क्रिय परम-आवश्यकसे जीवको सामायिकचारित्र संपूर्ण होता है।
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री योगींद्रदेवने (अमृताशीतिमें ६४ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] यदि किसी प्रकार मन निज स्वरूपसे चलित हो और उससे बाहर भटके तो तुझे सर्व दोषका प्रसंग आता है, इसलिये तू सतत अंतर्मग्न और संविग्न चित्तवाला हो कि जिससे तू मोक्षरूपी स्थायी धामका अधिपति बनेगा।" ___और (इस १४७ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं):
[ श्लोकार्थ:-] यदि इसप्रकार ( जीवको ) संसारदुःखनाशक निजात्मनियत चारित्र हो, तो वह चारित्र मुक्तिश्रीरूपी ( मुक्तिलक्ष्मीरूपी) सुंदरीसेउत्पन्न होनेवाले सुखका
१ अनुपादेय = हेय; पसंद न करने योग्य; प्रशंसा न करने योग्य। २ संविग्न = संवेगी; वैरागी; विरक्त। ३ निजात्मनियत = निज आत्मामें लगा हुआ; निज आत्माका अवलंबन लेता हुआ; निजात्माश्रित; निज आत्मामें एकाग्र।
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