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नियमसार
( द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणैः फलं तनुविशोषणमेव न चापरम् । तव पदांबुरुहद्वयचिंतया
स्ववश जन्म सदा सफलं मम ।। २५१ ।।
( मालिनी )
जयति सहजतेजोराशिनिर्मग्नलोक:
स्वरसविसरपूरक्षालितांहः समंतात्। सहजसमरसेनापूर्णपुण्यः पुराणः स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्धः ।। २५२ ।।
( अनुष्टुभ् ) सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः।
न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मो हा जडा वयम्।। २५३ ।।
( अनुष्टुभ् )
एक एव सदा धन्यो जन्मन्यस्मिन्महामुनिः। स्ववशः सर्वकर्मभ्यो बहिस्तिष्ठत्यनन्यधीः ।। २५४ ।।
भवरूपी अरण्यमें शरण है । २५० ।
[ श्लोकार्थ:- ] अनशनादि तपश्चरणोंका फल शरीरका शोषण ( - सूखना) ही है, दूसरा नहीं । ( परंतु ) हे स्ववश ! ( हे आत्मवश मुनि!) तेरे चरणकमल-युगलके चिंतनसे मेरा जन्म सदा सफल है । २५१ ।
[ श्लोकार्थ :- ] जिसने निज रसके विस्ताररूपी पूर द्वारा पापोंको सर्व ओरसे धो डाला है, जो सहज समतारससे पूर्ण भरा होनेसे पवित्र है, जो पुराण ( सनातन ) है, जो स्ववश मनमें सदा सुस्थित है ( अर्थात् जो सदा मनको भावको स्ववश करके विराजमान है) और जो शुद्ध सिद्ध है ( अर्थात् जो शुद्ध सिद्धभगवान समान है ) - ऐसा सहज तेजराशिमें मग्न जीव जयवंत है । २५२ ।
[ श्लोकार्थ :- ] सर्वज्ञ - वीतरागमें और इस स्ववश योगीमें कभी कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरेरे! हम जड़ हैं कि उसमें भेद मानते हैं । २५३।
[ श्लोकार्थ :- ] इस जन्ममें स्ववश महामुनि एक ही सदा धन्य है कि जो
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