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तथा हि
प्रध्वस्तदर्शनचारित्रमोहनीयकर्मध्वांतसंघाताः
परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतराग
सुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलिनः, ते खलु कथयन्तीदृशम् अन्यवशस्य स्वरूपमिति ।
तथा चोक्तम्
(अनुष्टुभ् )
'आत्मकार्यं परित्यज्य दृष्टादृष्टविरुद्धया । यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ।।"
..
(अनुष्टुभ् ) यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः । यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ।। २४६ ।।
२८६
जिन्होंने दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी तिमिरसमूहका नाश किया है और परमात्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न वीतरागसुखामृतके पानमें जो उन्मुख (तत्पर) हैं ऐसे श्रमण वास्तवमें महाश्रमण है, परम श्रुतकेवली हैं; वे वास्तवमें अन्यवशका ऐसा (उपरोक्तानुसार) स्वरूप कहते हैं।
इसीप्रकार ( अन्यत्र श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] आत्मकार्यको छोड़कर दृष्ट तथा अदृष्टसे विरुद्ध ऐसी उस चिंतासे (-प्रत्यक्ष तथा परोक्षसे विरुद्ध ऐसे विकल्पोंसे ) ब्रह्मनिष्ठ यतियोंको क्या प्रयोजन है ?”
और (इस १४५ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ):
[ श्लोकार्थ :- ] जिसप्रकार इंधनयुक्त अग्नि वृद्धिको प्राप्त होती है (अर्थात् जब तक इंधन है तब तक अग्निकी वृद्धि होती है), उसीप्रकार जबतक जीवोंको चिंता ( विकल्प ) है तबतक संसार है । २४६ ।
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