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________________ २८७ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं । अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ।। १४६ ।। परित्यज्य परभावं आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम् । आत्मवशः स भवति खलु तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यम्।। १४६ ।। अत्र हि साक्षात् स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वरूपमुक्तम्। यस्तु निरुपरागनिरंजनस्वभावत्वादौदयिकादिपरभावानां समुदयं परित्यज्य कायकरणवाचामगोचरं सदा निरावरणत्वान्निर्मलस्वभावं निखिलदुरघवीरवैरिवाहिनीपताकालुंटाकं निजकारणपरमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्तः । तस्याभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्य निखिलबाह्यक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पमहाकोलाहलप्रतिपक्षमहानंदानंदप्रदनिश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकपरमावश्यककर्म भवतीति। गाथा १४६ अन्वयार्थः-[ परभावं परित्यज्य ] जो परभावको परित्यागकर [ निर्मल-स्वभावम् ] निर्मल स्वभाववाले [आत्मानं ] आत्मको [ध्यायति ] ध्याता है, [ सः खलु] वह वास्तवमें [आत्मवश: भवति ] आत्मवश है [ तस्य तु ] और उसे [ आवश्यम् कर्म] आवश्यक कर्म [ भणन्ति ] ( जिन ) कहते हैं। टीका:- यहाँ वास्तवमें साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वरका स्वरूप कहा है I जो (श्रमण ) निरुपराग निरंजन स्वभाववाला होनेके कारण औदयिकादि परभावोंके समुदायको परित्याग कर, निज कारणपरमात्माको - कि जो ( कारणपरमात्मा) काया, इंद्रिय और वाणीको अगोचर है, सदा निरावरण होनेसे निर्मल स्वभाववाला है और समस्त * दुरघरूपी वीर शत्रुओंकी सेनाके ध्वजको लूटनेवाला है उसे ध्याता है, उसीको ( - उस श्रमणको ही ) आत्मवश कहा गया है। उस अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयात्मक श्रमणको समस्त बाह्यक्रियाकांड-आडंबरके विविध विकल्पोंके महा कोलाहलसे प्रतिपक्ष महा-आनंदानंदप्रद निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यान - स्वरूप परमावश्यक - कर्म है। = 帶 * दुरघ दुष्ट अघ; दुष्ट पाप । ( शुभ तथा अशुभ कर्म दोनों दुरघ हैं । ) * परम आवश्यक कर्म निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप है-कि जो ध्यान महा आनंद-आनंदके देनेवाले । यह महा आनंद-आनंद विकल्पोंके महा कोलाहलसे विरुद्ध है। जो छोड़कर परभाव ध्यावे शुद्ध निर्मल आत्म रे । वह आत्मवश है श्रमण, आवश्यक करम होता उसे ।। १४६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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