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नियमसार
२८५
दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो। मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ।। १४५ ।।
द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः। मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीदृशम्।।१४५ ।।
अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्तम्।
यः कश्चिद् द्रव्यलिङ्गधारी भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रतिपादनसमर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तामूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपि तु त्रिकालनिरावरणनित्यानंदलक्षण निजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहज ज्ञानादिशुद्धगुणपर्याया- णामाधारभूतनिजात्मतत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्तः।
गाथा १४५ अन्वयार्थ:-[ यः] जो [ द्रव्यगुणपर्यायाणां] द्रव्य-गुण-पर्यायोंमें ( अर्थात् उनके विकल्पोंमें ) [ चित्तं करोति ] मन लगाता है, [ सः अपि] वह भी [अन्यवशः ] अन्यवश है; [ मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः ] मोहान्धकार रहित श्रमण [ ईदृशम् ] ऐसा [ कथयन्ति ] कहते
टीका:-यहाँ भी अन्यवशका स्वरूप कहा है।
भगवान अर्हत्के मुखारविंदसे निकले हुए (-कहे गये) मूल और उत्तर पदार्थोंका सार्थ (-अर्थ सहित) प्रतिपादन करनेमें समर्थ ऐसा जो कोई द्रव्यलिंगधारी (मुनि) कभी छह द्रव्योंमें चित्त लगाता है, कभी उनके मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन गुणोमें मन लगाता है
और फिर कभी उनकी अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायोंमें बुद्धि लगाता है परंतु त्रिकालनिरावरण, नित्यानंद जिसका लक्षण है ऐसे निजकारणसमयसारके स्वरूपमें लीन सहजज्ञानादि शुद्धगुणपर्यायोंके आधार-भूत निज आत्मतत्त्वमें चित्त कभी भी नहीं लगाता, उस तपोधनको भी उस कारणसे ही (अर्थात् पर विकल्पोंके वश होनेके कारणसे ही) अन्यवश कहा गया है।
जो जोड़ता चित्त द्रव्य-गुण-पर्याय चिंतनमें अरे । रे मोह-विरहित-श्रमण कहते अन्यके वश ही उसे ।।१४५ ।
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