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निश्चय-परमावश्यक अधिकार
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कुशलबुद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोधन: साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयत: परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अत: परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्तः। अस्य हि तपश्चरणनिरतचित्तस्यान्यवशस्य नाकलोकादिक्लेशपरंपरया शुभोपयोगफलात्मभिः प्रशस्तरागांगारैः पच्यमान: सन्नासन्नभव्यतागुणोदये
सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति।
(हरिणी) त्यजतु सुरलोकादिक्लेशे रतिं मुनिपुंगवो भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम्। सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः।। २४५ ।।
जो कुशलबुद्धिवाला है; परंतु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्षके कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यक-कर्मको-निश्चयसे परमात्मतत्त्वमें विश्रांतिरूप निश्चयधर्मध्यानको तथा शुक्लध्यानको-नहीं जानता; इसलिये परद्रव्यमें परिणत होनेसे उसे अन्यवश कहा गया है। जिसका चित्त तपश्चरणमें लीन है ऐसा यह अन्यवश श्रमण देवलोकादिके क्लेशकी परंपरा प्राप्त होनेसे शुभोपयोगके फलस्वरूप प्रशस्त रागरूपी अंगारोंसे सिकता हुआ, आसन्नभव्यतारूपी गुणका उदय होने पर परमगुरुके प्रसादसे प्राप्त परमतत्त्वके श्रद्धानज्ञान-अनुष्ठानस्वरूप शुद्ध-निश्चय-रत्नत्रयपरिणति द्वारा निर्वाणको प्राप्त होता है (अर्थात् कभी शुद्ध-निश्चय-रत्नत्रयपरिणतिको प्राप्त कर ले तो ही और तभी निर्वाणको प्राप्त करता
[अब इस १४४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] मुनिवर देवलोकादिक क्लेशके प्रति रति छोड़ो और *निर्वाणके कारणका कारण ऐसे सहजपरमात्माको भजो-कि जो सहजपरमात्मा परमानंदमय है, सर्वथा निर्मल ज्ञानका आवास है, निरावरणस्वरूप है तथा नय-अनयके समूहसे ( सुनयों तथा कुनयोंके समूहसे) दूर है। २४५ ।
* निर्वाणका कारण परमशुद्धोपयोग है और परमशुद्धोपयोगका कारण सहजपरमात्मा है।
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