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निश्चय-परमावश्यक अधिकार
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(आर्या) अन्यवशः संसारी मुनिवेषधरोपि दु:खभाङ्नित्यम्। स्ववशो जीवन्मुक्तः किंचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेषः।। २४३ ।।
__(आर्या) अत एव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे। अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत्।। २४४ ।।
जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे।।१४४ ।।
यश्चरति संयतः खलु शुभभावे स भवेदन्यवशः। तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत्।। १४४ ।।
[श्लोकार्थ:-] जो जीव अन्यवश है वह भले मुनिवेशधारी हो तथापि संसारी है नित्य दुःखका भोगनेवाला है; जो जीव स्ववश है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वरसे किंचित् न्यून है ( अर्थात् उसमें जिनेश्वरदेवकी अपेक्षा थोड़ी-सी कमी है)। २४३।
[ श्लोकार्थ:-] ऐसा होनेसे ही जिननाथके मार्गमें मुनिवर्गमें स्ववश मुनि सदा शोभा देता है; और अन्यवश मुनि नौकरके समूहोंमें राजवल्लभ नौकर समान शोभा देता है ( अर्थात् जिसप्रकार योग्यता रहित, खुशामदी नौकर शोभा नहीं देता उसीप्रकार अन्यवश मुनि शोभा नहीं देता)। २४४ ।
गाथा १४४ अन्वयार्थ:-[ यः] जो (जीव) [ संयतः] संयत रहता हुआ [ खलु ] वास्तवमें [ शुभभावे ] शुभ भावमें [ चरति ] चरता-प्रवर्तता है, [ सः ] वह [ अन्यवशः भवेत् ] अन्यवश है; [तस्मात् ] इसलिये [ तस्य तु] उसे [ आवश्यकलक्षणं कर्म ] आवश्यकस्वरूप कर्म [ न भवेत् ] नहीं है।
* राजवल्लभ = ( खुशामदसे ) राजाका मानीता ( माना हुआ) बन गया हो ।
संयत चरे शुभभावमें वह श्रमण है वश अन्यके । अतएव आवश्यक-स्वरूप न कर्म होता है उसे ।।१४४।।
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