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नियमसार
२८१
( मालिनी) अभिनवमिदमुच्चैर्मोहनीयं मुनीनां त्रिभुवनभुवनान्तांतपुंजायमानम्। तृणगृहमपि मुक्त्वा तीव्रवैराग्यभावाद् वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति।। २४० ।।
__ (शार्दूलविक्रीडित) कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहितः सद्धर्मरक्षामणिः। सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकर: पापाटवीपावकः।। २४१ ।।
(शिखरिणी) तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम्। परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमतिः।। २४२ ।।
[ श्लोकार्थ:-] त्रिलोकरूपी मकानमें रहे हुए ( महा) तिमिरपुंज जैसा मुनियोंका यह (कोई ) नवीन तीव्र मोहनीय है कि (पहले) वे तीव्र वैराग्य-भावसे घाससे घरको भी छोड़कर ( फिर ) 'हमारा वह अनुपम घर!' ऐसा स्मरण करते हैं ! २४०।
[ श्लोकार्थ:-] कलिकालमें भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादिरूप मलकीचड़से रहित और सद्धर्मरक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है। जिसने अनेक परिग्रहों के विस्तारको छोड़ा है और जो पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि है ऐसा यह मुनि इस काल भूतलमें तथा देवलोकमें देवोंसे भी भलीभाँति पुजता है। २४१।
[श्लोकार्थ:-] इस लोकमें तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियोंको प्राणप्यारी है; वह योग्य तपश्चर्या सो इंद्रोंको भी सतत वंदनीय है। उसे प्राप्त करके जो कोई जीव कामान्धकारयुक्त संसारसे जनित सुखमें रमता है, वह जड़मति अरेरे! कलिसे हना हुआ है (-कलिकालसे घायल हुआ है)। २४२।
* सद्धर्मरक्षामणि = सद्धर्मकी रक्षा करनेवाला मणि। ( रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा
पिशाच आदिसे अपनेको बचाने के लिये पहिना जानेवाला मणि)
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