________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
२८०
वट्टदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण। तम्हा तस्स दु कम्म आवस्सयलक्खणं ण हवे।।१४३ ।।
वर्तते यः स श्रमणोऽन्यवशो भवत्यशुभभावेन। तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत्।।१४३ ।।
इह हि भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्यावशत्वं न समस्तीत्युक्तम्।
अप्रशस्तरागाद्यशुभभावेन यः श्रमणाभासो द्रव्यलिङ्गी वर्तते स्वस्वरूपादन्येषां परद्रव्याणां वशो भूत्वा, ततस्तस्य जघन्यरत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानलक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थं द्रव्यलिङ्गं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुख: सन् परमतपश्चरणादिकमप्युदास्य जिनेन्द्रमन्दिरं वा तत्क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिकं वा सर्वमस्मदीयमिति मनश्चकारेति।
गाथा १४३ अन्वयार्थ:-[ यः ] जो [ अशुभभावेन ] अशुभ भाव सहित [ वर्तते ] वर्तता है, [ सः श्रमणः ] वह श्रमण [ अन्यवशः भवति ] अन्यवश है; [ तस्मात् ] इसलिये [ तस्य तु] उसे [ आवश्यकलक्षणं कर्म] आवश्यकस्वरूप कर्म [ न भवेत् ] नहीं है।
टीका:-यहाँ, भेदोपचार-रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको अवशपना नहीं है ऐसा कहा
जो श्रमणाभास-द्रव्यलिंगी अप्रशस्त रागादिरूप अशुभभाव सहित वर्तता है, वह निज स्वरूपसे अन्य ( -भिन्न ) ऐसे परद्रव्योंके वश है; इसलिये उस जघन्य रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको स्वात्माश्रित निश्चय-धर्मध्यानस्वरूप परम-आवश्यक-कर्म नहीं है। (वह श्रमणाभास) भोजन हेतु द्रव्यलिंग ग्रहण करके स्वात्मकार्यसे विमुख रहता हुआ परम तपश्चरणादिके प्रति भी उदासीन (लापरवाह) रहकर जिनेन्द्रमंदिर अथवा उसका क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक सब हमारा है ऐसी बुद्धि करता है।
[अब इस १४३ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक कहते हैं:]
वर्ते अशुभ परिणाममें, वह श्रमण है वश अन्यके । अतएव आवश्यक-स्वरूप न कर्म होता है उसे ।। १४३।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com