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नियमसार
२७९
अवशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य परमावश्यककर्मावश्यं भवतीत्यत्रोक्तम्।
यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न गतः, अत एव अवश इत्युक्तः, अवशस्य तस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यककर्मावश्यं भवतीति बोद्धव्यम्। निरवयवस्योपायो युक्तिः। अवयव: काय:, अस्याभावात् अवयवाभावः। अवश: परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्ति: व्युत्पत्तिश्चेति।
___(मंदाक्रांता) योगी कश्चित्स्वहितनिरतः शुद्धजीवास्तिकायाद् अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्तिः। तस्मादस्य प्रहतदुरितध्वान्तपुंजस्य नित्यं स्फूर्जज्ज्योतिःस्फुटितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात्।। २३९ ।।
टीका:-यहाँ, *अवश परमजिनयोगीश्वरको परम आवश्यक कर्म अवश्य है ऐसा कहा
जो योगी निज आत्माके परिग्रहके अतिरिक्त अन्य पदार्थोके वश नहीं होता और इसीलिये जिसे 'अवश' कहा जाता है, उस अवश परमजिनयोगीश्वरको निश्चयधर्मध्यानस्वरूप परम-आवश्यक-कर्म अवश्य है ऐसा जानना। ( वह परम-आवश्यककर्म) निरवयवपनेका उपाय है, युक्ति है। अवयव अर्थात् काय; उसका (कायका) अभाव वह अवयवका अभाव ( अर्थात् निरवयवपना)। परद्रव्योंको अवश जीव निरवयव होता है (अर्थात् जो जीव परद्रव्योंको वश नहीं होता वह अकाय होता है)। इसप्रकार निरुक्तिव्युत्पत्ति है।
[अब इस १४२ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] कोई योगी स्वहितमें लीन रहता हुआ शुद्धजीवास्तिकायके अतिरिक्त अन्य पदार्थोके वश नहीं होता। इसप्रकार जो सुस्थित रहना सो निरुक्ति ( अर्थात् अवशपनेका व्युत्पत्ति-अर्थ) है। ऐसा करनेसे ( -अपनेमें लीन रहकर परको वश न होनेसे) "दुरितरूपी तिमिरपुंजका जिसने नाश किया है ऐसे उस योगीको सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा सहज अवस्था प्रगट होने से अमूर्तपना होता है। २३९ ।
* अवश = परके वश न हों ऐसे; स्ववश; स्वाधीन; स्वतंत्र। * दुरित = दुष्कृत; दुष्कर्म। ( पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें दुरित हैं।)
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