SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-परमावश्यक अधिकार २७८ तथा हि (मंदाक्रांता) आत्मन्युच्चैर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूर्ती धर्मः साक्षात् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम्। सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निवृतेरेकमार्ग: तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम्।। २३८ ।। ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वं । जुत्ति त्ति उवाअंति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती।।१४२ ।। न वशो अवशः अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम्। युक्तिरिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्तिः।। १४२ ।। और (इस १४१ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ): [ श्लोकार्थ:-] स्ववशतासे उत्पन्न आवश्यक-कर्मस्वरूप यह साक्षात् धर्म नियमसे (निश्चित) सच्चिदानंदमूर्ति आत्मामें ( सत्-चिद्-आनंदस्वरूप आत्मामें) अतिशयरूपसे होता है। ऐसा यह (आत्मस्थित धर्म), कर्मक्षय करनेमें कुशल ऐसा निर्वाणका एक मार्ग है। उसीसे मैं शीघ्र किसी ( -अद्भुत) निर्विकल्प सुखको प्राप्त करता हूँ। २३८ । गाथा १४२ अन्वयार्थ:-[ न वशः अवशः ] जो ( अन्यके ) वश नहीं है वह 'अवश' है [ वा] और [अवशस्य कर्म ] अवशका कर्म वह [आवश्यकम् ] 'आवश्यक' है [इति बोद्धव्यम् ] ऐसा जानना; [ युक्तिः इति] वह (अशरीरी होनेकी) युक्ति है, [ उपायः इति च] वह ( अशरीर होनेका) उपाय है, [ निरवयवः भवति] उससे जीव निरवयव ( अर्थात् अशरीर) होता है। [ निरुक्तिः ] ऐसी निरुक्ति है। जो वश नहीं वह 'अवश', आवश्यक अवशका कर्म है। वह युक्ति है वह यत्न है, निरवयव कर्ता धर्म है ।।१४२।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy