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नियमसार
२७७
इत्यर्थः। तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ्मुखस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानप्रधान परमावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरणनिरतपरमजिन-योगीश्वरा वदन्ति। किं च यस्त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोग: सकलकर्मविनाशहेतुः स एव साक्षान्मोक्षकारणत्वान्निर्वृतिमार्ग इति निरुक्तिर्युत्पत्तिरिति।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
( मंदाक्रांता) "आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय। प्राप्स्यत्युच्चैरविचलतया निःप्रकम्पप्रकाशां स्फूर्जज्ज्योतिः सहजविलसद्रनदीपस्य लक्ष्मीम्।।''
ऐसा अर्थ है, उस व्यावहारिक क्रियाप्रपंचसे पराङ्मुख जीवको स्वात्माश्रितनिश्चयधर्मध्यानप्रधान परम आवश्यक कर्म है ऐसा निरंतर परमतपश्चरणमें लीन परमजिनयोगीश्वर कहते हैं। और, सकल कर्मके विनाशका हेतु ऐसा जो त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षण परम योग वही साक्षात् मोक्षका कारण होनेसे निर्वाणका मार्ग है। ऐसी निरुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति है।
इसीप्रकार ( आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने ( श्री प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका नामक टीकामें पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार शुद्धोपयोगको प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ अर्थात् स्वयं धर्मरूपसे परिणमित होता हुआ नित्य आनंदके विस्तारसे सरस ( अर्थात् जो शाश्वत आनंदके विस्तारसे रसयुक्त हैं) ऐसे ज्ञानतत्त्वमें लीन होकर, अत्यंत अविचलपने के कारण , दैदीप्यमान ज्योतिवाले और सहजरूपसे विलसित (-स्वभावसे ही प्रकाशित) रत्नदीपककी निष्कंप-प्रकाशवाली शोभाको प्राप्त होता है (अर्थात् रत्न-दीपककी भाँति स्वभावसे ही निष्कपरूपसे अत्यंत प्रकाशित-जानता रहता है)।"
"
१। 'अन्यवश नहीं है' इस कथनका ‘साक्षात् स्ववश है' ऐसा अर्थ है। २। निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चयधर्मध्यान परम आवश्यक कर्ममें प्रधान है। ३। परम योगका लक्षण तीन गुप्ति द्वारा गुप्त ( –अंतर्मुख) ऐसा परम समाधि है। [ परम
आवश्यक कर्म ही परम योग है और परम योग वह निर्वाणका मार्ग है।]
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