SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates 卐 -११ 卐 卐 निश्चय-परमावश्यक अधिकार 卐 卐 5 555555555555555555555 अथ सांप्रतं व्यवहारषडावश्यकप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयाधिकार उच्यते। जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणति आवासं । कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ।। १४१ ।। कहा है। । यो न भवत्यन्यवशः तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यकम् । कर्मविनाशनयोगो निर्वृतिमार्ग इति प्ररूपितः ।। १४१ ।। अत्रानवरतस्ववशस्य निश्चयावश्यककर्म भवतीत्युक्तम्। यः खलु यथाविधि परमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्वदैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति किन्तु साक्षात्स्ववश अब व्यवहार छह आवश्यकोंसे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चयका ( शुद्धनिश्चय - आवश्यकका) अधिकार कहा जाता है। गाथा १४९ अन्वयार्थः-[ यः अन्यवशः न भवति ] जो अन्यवश नहीं है ( अर्थात् जो जीव अन्यके वश नहीं है) [ तस्य तु आवश्यकम् कर्म भणन्ति ] उसे आवश्यक कर्म कहते हैं (अर्थात् उस जीवको आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वरो कहते हैं)। [कर्मविनाशनयोगः] कर्मका विनाश करनेवाला योग ( - ऐसा जो यह आवश्यक कर्म ) [निर्वृतिमार्गः] वह निर्वाणका मार्ग है [ इति प्ररूपितः ] ऐसा कहा है। टीका:- यहाँ (इस गाथामें ), निरंतर स्ववशको निश्चय - आवश्यक - कर्म है ऐसा विधि अनुसार परमजिनमार्गके आचरणमें कुशल ऐसा जो जीव सदैव अंतर्मुखताके कारण अन्यवश नहीं है परंतु साक्षात् स्ववश है नहिं अन्यवश जो जीव, आवश्यक करम होता उसे । यह कर्म-नाशक योग ही निर्वाणमार्ग प्रसिद्ध ।। १४१ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy