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卐 निश्चय-परमावश्यक अधिकार 卐 卐
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अथ सांप्रतं व्यवहारषडावश्यकप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयाधिकार उच्यते।
जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणति आवासं । कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ।। १४१ ।।
कहा है।
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यो न भवत्यन्यवशः तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यकम् । कर्मविनाशनयोगो निर्वृतिमार्ग इति प्ररूपितः ।। १४१ ।।
अत्रानवरतस्ववशस्य निश्चयावश्यककर्म भवतीत्युक्तम्। यः खलु यथाविधि परमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्वदैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति किन्तु साक्षात्स्ववश
अब व्यवहार छह आवश्यकोंसे प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चयका ( शुद्धनिश्चय - आवश्यकका) अधिकार कहा जाता है।
गाथा १४९
अन्वयार्थः-[ यः अन्यवशः न भवति ] जो अन्यवश नहीं है ( अर्थात् जो जीव अन्यके वश नहीं है) [ तस्य तु आवश्यकम् कर्म भणन्ति ] उसे आवश्यक कर्म कहते हैं (अर्थात् उस जीवको आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वरो कहते हैं)। [कर्मविनाशनयोगः] कर्मका विनाश करनेवाला योग ( - ऐसा जो यह आवश्यक कर्म ) [निर्वृतिमार्गः] वह निर्वाणका मार्ग है [ इति प्ररूपितः ] ऐसा कहा है।
टीका:- यहाँ (इस गाथामें ), निरंतर स्ववशको निश्चय - आवश्यक - कर्म है ऐसा
विधि अनुसार परमजिनमार्गके आचरणमें कुशल ऐसा जो जीव सदैव अंतर्मुखताके कारण अन्यवश नहीं है परंतु साक्षात् स्ववश है
नहिं अन्यवश जो जीव, आवश्यक करम होता उसे । यह कर्म-नाशक योग ही निर्वाणमार्ग प्रसिद्ध ।। १४१ ।।
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