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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २७५ (वसंततिलका) अद्वन्द्वनिष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम्। किं तैश्च मे फलमिहान्यपदार्थसाथै: मुक्तिस्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य।। २३७ ।। इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृतौ परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः।। [ श्लोकार्थ:-] जो परमात्मतत्त्व ( रागद्वेषादि) द्वंद्वमें स्थित नहीं है और अनघ (निर्दोष , मल रहित) है, उस केवल एककी मैं पुनः पुनः संभावना ( सम्यक् भावना) करता हूँ। मुक्तिकी स्पृहावाले तथा भवसुखके प्रति निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोकमें उन अन्यपदार्थसमूहोंसे क्या फल है ? २३७। इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान है और पाँच इंद्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभ-मलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) परम-भक्ति अधिकार नामका दशवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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