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परम-भक्ति अधिकार
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(आर्या) अपुनर्भवसुखसिद्धयै कुर्वेहं शुद्धयोगवरभक्तिम। संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम्।। २३३ ।।
( शार्दूलविक्रीडित) रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः। धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरोः सन्निधौ ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि।। २३४ ।।
(अनुष्टुभ् ) निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम्। सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम्।। २३५ ।।
(अनुष्टुभ् ) अत्यपूर्वनिजात्मोत्थभावनाजातशर्मणे। यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे।। २३६ ।।
[श्लोकार्थ:-] अपुनर्भवसुखकी (मुक्तिसुखकी) सिद्धिके हेतु मैं शुद्ध योगकी उत्तम भक्ति करता हूँ; संसारकी घोर भीतिसे जीव नित्य वह उत्तम भक्ति करो। २३३।
[ श्लोकार्थ:-] गुरुके सान्निध्यमें निर्मलसुखकारी धर्मको प्राप्त करके, ज्ञान द्वारा जिसने समस्त मोहकी महिमा नष्ट की है ऐसा मैं, अब रागद्वेषकी परंपरारूपसे परिणत चित्तको छोड़कर, शुद्ध ध्यान द्वारा समाहित (-एकाग्र, शांत) किये हुए मनसे आनंदात्मक तत्त्वमें स्थित रहता हुआ , परब्रह्ममें (परमात्मामें ) लीन होता हूँ। २३४।
[ श्लोकार्थ:-] इंद्रियलोलुपता जिनको निवृत्त हुई है और तत्त्वलोलुप ( तत्त्वप्राप्तिके लिये अति उत्सुक ) जिनका चित्त है, उन्हें सुंदर-आनंदझरता उत्तम तत्त्व प्रगट होता है। २३५।
[श्लोकार्थ:-] अति अपूर्व निजात्मजनित भावनासे उत्पन्न होनेवाले सुख के लिये जो यति यत्न करते हैं, वे वास्तवमें जीवन्मुक्त होते हैं, दूसरे नहीं। २३६ ।
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