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परम-भक्ति अधिकार
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अत्यपूर्वनिरुपरागरत्नत्रयात्मकनिजचिद्विलासलक्षणनिर्विकल्पपरमसमाधिना निखिलमोहरागद्वेषादिविविधविकल्पाभावे परमसमरसीभावेन निःशेषतोऽन्तर्मुखनिजकारणसमयसारस्वरूपमत्यासन्नभव्यजीव: सदा युनक्त्येव , तस्य खलु निश्चययोगभक्तिर्नान्येषाम्
इति।
(अनुष्टुभ् ) भेदाभावे सतीयं स्याद्योगभक्तिरनुत्तमा। तयात्मलब्धिरूपा सा मुक्तिर्भवति योगिनाम्।। २२९ ।।
विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु। जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो।। १३९ ।।
अति-अपूर्व 'निरुपराग रत्नत्रयात्मक, निजचिद्विलासलक्षण निर्विकल्प परम समाधि द्वारा समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विकल्पोंका अभाव होनेपर, परम समरसीभावके साथ 'निरवशेषरूपसे अंतर्मुख निज कारणसमयसारस्वरूपको जो अति-आसन्नभव्य जीव सदा जोड़ता ही है, उसे वास्तवमें निश्चययोगभक्ति है; दूसरोंको नहीं।
[अब इस १३८ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[श्लोकार्थ:-] भेदका अभाव होने पर यह अनुत्तम योगभक्ति होती है; उसके द्वारा योगियोंको आत्मलब्धिरूप ऐसी वह (-प्रसिद्ध ) मुक्ति होती है। २२९ ।
१। निरुपराग = निर्विकार; शुद्ध। [ परम समाधि अति-अपूर्व शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप है।] २। परम समाधिका लक्षण निज चैतन्यका विलास है। ३। निरवशेष = परिपूर्ण। [ कारणसमयसारस्वरूप परिपूर्ण अंतर्मुख है।] ४। अनुत्तम = जिससे दूसरा कुछ उत्तम नहीं है ऐसी; सर्वश्रेष्ठ ।
विपरीत आग्रह छोड़कर श्री जिन कथित जो तत्त्व है। जोड़े वहाँ निज आत्मा, निजभाव उसका योग है ।। १३९ ।।
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