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________________ २६९ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates हैं ): तथा हि .. नियमसार ( अनुष्टुभ् ) आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः । तस्य ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते॥" (अनुष्टुभ् ) आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम् । स योगभक्तियुक्तः स्यान्निश्चयेन मुनीश्वरः ।। २२८ ।। सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू । सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ।। १३८ ।। सर्वविकल्पाभावे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः । स योगभक्तियुक्तः इतरस्य च कथं भवेद्योगः ।। १३८ ।। अत्रापि पूर्वसूत्रवन्निश्चययोगभक्तिस्वरूपमुक्तम्। “[ श्लोकार्थ:-] आत्मप्रयत्नसापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति उसका ब्रह्ममें संयोग होना ( - आत्मप्रयत्नकी अपेक्षावाली विशेष प्रकारकी चित्तपरिणतिका आत्मामें लगना ) उसे योग कहा जाता है। 99 और (इस १३७ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते [ श्लोकार्थ :- ] जो यह आत्मा आत्माको आत्माके साथ निरंतर जोड़ता है, वह मुनीश्वर निश्चयसे योगभक्तिवाला है। २२८ । गाथा १३८ अन्वयार्थः-[ यः साधुः तु] जो साधु [ सर्वविकल्पाभावे आत्मानं युनक्ति ] सर्व विकल्पोंके अभावमें आत्माको लगाता है ( अर्थात् आत्मामें आत्माको जोड़कर सर्व विकल्पोंका अभाव करता है), [ सः ] वह [ योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तिवाला है; [ इतरस्य च ] दूसरेको [ योग: ] योग [ कथम् ] किसप्रकार [ भवेत् ] हो सकता है ? टीका :- यहाँ भी पूर्व सूत्रकी भाँति निश्चय - योगभक्तिका स्वरूप कहा है। सब ही विकल्प अभावमें जो साधु जोड़े आतमा । है योगकी भक्ति उसे, नहिं अन्यको सम्भावना ।। १३८ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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