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परम-भक्ति अधिकार
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रायादीपरिहारे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो।।१३७ ।।
रागादिपरिहारे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः। स योगभक्तियुक्तः इतरस्य च कथं भवेद्योगः।। १३७ ।।
निश्चययोगभक्तिस्वरूपाख्यानमेतत्।
निरवशेषेणान्तर्मुखाकारपरमसमाधिना निखिलमोहरागद्वेषादिपरभावानां परिहारे सति यस्तु साधुरासन्नभव्यजीव: निजेनाखंडाद्वैतपरमानंदस्वरूपेण निजकारणपरमात्मानं युनक्ति, स परमतपोधन एव शुद्धनिश्चयोपयोगभक्तियुक्तः। इतरस्य बाह्यप्रपंचसुखस्य कथं योगभक्तिर्भवति।
तथा चोक्तम्
गाथा १३७ अन्वयार्थ:-[ यः साधुः तु] जो साधु [ रागादिपरिहारे आत्मानं युनक्ति ] रागादिके परिहारमें आत्माको लगाता है (अर्थात् आत्मामें आत्माको लगाकर रागादिका त्याग करता है), [ सः ] वह [ योगभक्तियुक्तः ] योगभक्तियुक्त (योगकी भक्तिवाला) है; [ इतरस्य च] दूसरेको [योगः ] योग [ कथम् ] किसप्रकार [ भवेत् ] हो सकता है ?
टीका:-यह, निश्चययोगभक्तिके स्वरूपका कथन है।
निरवशेषरूपसे अंतर्मुखाकार (-सर्वथा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसी) परम समाधि द्वारा समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंका परिहार होने पर, जो साधु- आसन्नभव्य जीव-निज अखंड अद्वैत परमानंदस्वरूपके साथ निज कारणपरमात्माको युक्त करता है, वह परम तपोधन ही शुद्धनिश्चय-उपयोगभक्तिवाला है; दूसरेको-बाह्य प्रपंचमें सुखी हो उसेयोगभक्ति किस प्रकार हो सकती है ?
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
रागादिके परिहारमें जो साध जोड़े आतमा । है योगकी भक्ति उसे; नहिं अन्यको संभावना ।। १३७ ।।
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