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नियमसार
२६७
निजपरमात्मभक्तिस्वरूपाख्यानमेतत्।
भेदकल्पनानिरपेक्षनिरुपचाररत्नत्रयात्मके निरुपरागमोक्षमार्गे निरंजननिजपरमात्मानंदपीयूषपानाभिमुखो जीवः स्वात्मानं संस्थाप्यापि च करोति निर्वृतेर्मुक्त्यङ्गनाया: चरणनलिने परमां भक्तिं, तेन कारणेन स भव्यो भक्तिगुणेन निरावरणसहजज्ञानगुणत्वादसहायगुणात्मकं निजात्मानं प्राप्नोति।
(स्रग्धरा) आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलितमहाशुद्धरत्नत्रयेऽस्मिन् नित्ये निर्मुक्तिहेतौ निरुपमसहजज्ञानदृक्शीलरूपे। संस्थाप्यानंदभास्वन्निरतिशयगृहं चिच्चमत्कारभक्त्या प्राप्नोत्युच्चैरयं यं विगलितविपदं सिद्धिसीमन्तिनीशः।। २२७ ।।
टीका:-यह, निज परमात्माकी भक्तिसे स्वरूपका कथन है।
निरंजन निज परमात्माका आनंदामृत पान करने में अभिमुख जीव भेदकल्पना-निरपेक्ष निरुपचार-रत्नत्रयात्मक 'निरुपराग मोक्षमार्गमें अपने आत्माको सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके निर्वृतिके-मुक्तिरूपी स्त्रीके-चरणकमलकी परम भक्ति करता है, उस कारणसे वह भव्य जीव भक्तिगुण द्वारा निज आत्माको-कि जो निरावरण सहज ज्ञानगुणवाला होनेसे असहायगुणात्मक है उसे–प्राप्त करता है।
[अब इस १३६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] इस अविचलित-महाशुद्ध-रत्नत्रयवाले , मुक्तिके हेतुभूत निरुपमसहज-ज्ञानदर्शनचारित्ररूप, नित्य आत्मामें आत्माको वास्तवमें सम्यक् प्रकारसे स्थापित करके, यह आत्मा चैतन्यचमत्कारकी भक्ति द्वारा निरतिशय घरको-कि जिसमेंसे विपदाएँ दूर हुई हैं और जो आनंदसे भव्य (शोभायमान) है उसे अत्यंत प्राप्त करता है अर्थात् सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है। २२७ ।
१। निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार; निर्मल; शुद्ध। २। निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय।
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