________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
२७१
विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वेषु। यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः।। १३९ ।।
इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्त्वेषु विपरीताभिनिवेशविवर्जितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्तः।
अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरीते पदार्थे ह्यभिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभिनिवेशः। अमुं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वानि निश्चयव्यवहारनयाभ्यां बोद्धव्यानि। सकलजिनस्य भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैनाः, परमार्थतो गणधरदेवादय इत्यर्थः। तैरभिहितानि निखिलजीवादितत्त्वानि तेषु यः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्मानं युनक्ति, तस्य च निजभाव एव परमयोग इति।।
गाथा १३९ अन्वयार्थ:-[ विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य ] विपरीत अभिनिवेशका परित्याग करके [ यः] जो [ जैनकथिततत्त्वेषु] जैनकथित तत्त्वोमें [ आत्मानं ] आत्माको [ युनक्ति ] लगाता है. [ निजभाव:] उसका निज भाव [ सः योगः भवेत ] वह योग है।
टीका:-यहाँ, समस्त गुणोंके धारण करनेवाले गणधरदेव आदि जिनमुनिनाथों द्वारा कहे हुए तत्त्वोंमें विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही निश्चय-परमयोग है ऐसा कहा है।
अन्य समयके तीर्थनाथ द्वारा कहे हुए (-जैन दर्शनके अतिरिक्त अन्य दर्शनके तीर्थप्रवर्तक द्वारा कहे हुए) विपरीत पदार्थमें अभिनिवेश-दुराग्रह ही विपरीत अभिनिवेश है। उसका परित्याग करके जैनों द्वारा कहे हुए तत्त्व निश्चयव्यवहारनयसे जानने योग्य है, 'सकलजिन ऐसे भगवान तीर्थाधिनाथके चरणकमलके उपजीवक वे जैन हैं; परमार्थसे गणधरदेव आदि ऐसा उसका अर्थ है। उन्होंने (-गणधरदेव आदि जैनोंने) कहे हुए जो समस्त जीवादि तत्त्व उनमें जो परम जिनयोगीश्वर निज आत्माको लगाता है, उसका निजभाव ही परम योग है।
[अब इस १३९ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
१ देह सहित होने पर भी तीर्थंकरदेवने रागद्वेष और अज्ञानको संपूर्णरूपसे जीता है इसलिये
वे सकलजिन हैं। २ उपजीवक = सेवा करनेवाले; सेवक; आश्रित; दास।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com