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नियमसार
२६५
( आर्या) व्यवहारनयस्येत्थं निर्वृतिभक्तिर्जिनोत्तमैः प्रोक्ता। निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्तिरित्युक्ता।। २२२ ।।
(आर्या) निःशेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयं। शुद्धोपयोगफलमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्याः ।। २२३ ।।
___ ( शार्दूलविक्रीडित) ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः। ये शुद्धात्मविभावनोद्भबमहाकैवल्यसंपद्गुणाः तान् सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान्।। २२४ ।।
__ (शार्दूलविक्रीडित) त्रैलोक्याग्रनिकेतनान् गुणगुरून् ज्ञेयाब्धिपारंगतान् मुक्तिश्रीवनितामुखाम्बुजरवीन् स्वाधीनसौख्यार्णवान्। सिद्धान् सिद्धगुणाष्टकान् भवहरान् नष्टाष्टकर्मोत्करान् नित्यान् तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपावकान्।। २२५ ।।
स्त्रीके) पति हैं, जिन्होंने अष्ट गुणरूप ऐश्वर्यको संप्राप्त किया है तथा जो कल्याणके धाम है, उन सिद्धोंको मैं नित्य वंदन करता हूँ। २२१ ।
[ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार (सिद्धभगवंतोंकी भक्तिको) व्यवहारनयसे निर्वाणभक्ति जिनवरोंने कहा है; निश्चय-निर्वाणभक्ति रत्नत्रयभक्तिको कहा है। २२२ ।
[श्लोकार्थ:-] आचार्योने सिद्धत्वको निःशेष (समस्त) दोषसे दूर, केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंका धाम और शुद्धोपयोगका फल कहा है। २२३ ।
[ श्लोकार्थ:-] जो लोकाग्रमें वास करते हैं, जो भवभवके क्लेशरूपी समुद्रके पारको प्राप्त हुए हैं, जो निर्वाणवधूके पुष्ट स्तनके आलिंगनसे उत्पन्न सौख्यकी खान है और जो शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न कैवल्यसंपदाके (-मोक्षसंपदाके) महा गुणोंवाले हैं, उन पापाटवीपावक (-पापरूपी वनको जलानेमें अग्नि समान) सिद्धोंको में प्रतिदिन नमन करता हूँ। २२४।
[ श्लोकार्थ:-] जो तीन लोकके अग्रभाग में निवास करते हैं, जो गुणमें भारी हैं,
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