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परम-भक्ति अधिकार
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मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि। जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं ।। १३५ ।।
मोक्षगतपुरुषाणां गुणभेदं ज्ञात्वा तेषामपि। यः करोति परमभक्तिं व्यवहारनयेन परिकथितम्।। १३५ ।।
व्यवहारनयप्रधानसिद्धभक्तिस्वरूपाख्यानमेतत्।
ये पुराणपुरुषाः समस्तकर्मक्षयोपायहेतुभूतं कारणपरमात्मानमभेदानुपचाररत्नत्रयपरिणत्या सम्यगाराध्य सिद्धा जातास्तेषां केवलज्ञानादिशुद्धगुणभेदं ज्ञात्वा निर्वाणपरंपराहेतुभूतां परमभक्तिमासन्नभव्यः करोति, तस्य मुमुक्षोर्व्यवहारनयेन निर्वृतिभक्तिर्भवतीति।
(अनुष्टुभ् ) उद्भूतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान्। संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान् नित्यं वन्दे शिवालयान्।। २२१ ।।
गाथा १३५ अन्वयार्थ:-[ यः] जो जीव [ मोक्षगतपुरुषाणाम् ] मोक्षगत पुरुषोंका [ गुणभेदं] गुणभेद [ ज्ञात्वा] जानकर [ तेषाम् अपि] उनकी भी [ परमभक्तिं] परम भक्ति [करोति] करता है, [व्यवहारनयेन ] उस जीवको व्यवहारनसे [ परिकथितम् ] निर्वाणभक्ति कही है।
टीका:-यह, व्यवहारनयप्रधान सिद्धभक्तिके स्वरूपका कथन है।
जो पुराण पुरुष समस्तकर्मक्षयके उपायके हेतुभूत कारणपरमात्माकी अभेदअनुपचार-रत्नत्रयपरिणतिसे सम्यक्रूपसे आराधना करके सिद्ध हुए उनके केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंके भेदको जानकर निर्वाणकी परंपराहेतुभूत ऐसी परम भक्ति जो आसन्नभव्य जीव करता है, उस मुमुक्षुको व्यवहारनयसे निर्वाणभक्ति है।
[अब इस १३५ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] जिन्होंने कर्मसमूहको खिरा दिया है, जो सिद्धिवधूके ( मुक्तिरूपी
जो मुक्तिगत हैं उन पुरुषकी भक्ति जो गुणभेद सेकरता, वही व्यवहार से निर्वाखभक्ति वेद रे ।। १३५ ।।
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