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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २६३ एकादशपदेषु श्रावकेषु जघन्याः षट्, मध्यमास्त्रयः, उत्तमौ द्वौ च, एते सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्ति कर्वन्ति। अथ भवभयभीरवः परमनैष्कर्म्यवत्तयः परमतपोधनाश्च रत्नत्रयभक्तिं कर्वन्ति। तेषां परमश्रावकाणां परमतपोधनानां च जिनोत्तमैः प्रज्ञप्ता निर्वृतिभक्तिरपुनर्भवपुरंध्रिकासेवा भवतीति। (मंदाक्रांता) सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे भक्तिं कुर्यादनिशमतुलां यो भवच्छेददक्षाम्। कामक्रोधाद्यखिलदुरघवातनिर्मुक्तचेताः भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावकः संयमी वा।। २२० ।। "एकादशपदी श्रावकोंमें जघन्य छह हैं, मध्यम तीन हैं तथा उत्तम दो है। यह सब शुद्धरत्नत्रयकी भक्ति करते हैं। तथा भवभयभीरु, परमनैष्कर्म्यवृत्तिवाले (परम निष्कर्म परिणतिवाले) परम तपोधन भी (शुद्ध) रत्नत्रयकी भक्ति करते हैं। उन परम श्रावकों तथा परम तपोधनोंको जिनवरोंकी कही हुई निर्वाणभक्ति-अपुनर्भवरूपी स्त्रीकी सेवा-वर्तती है। [अब इस १३४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं:] [ श्लोकार्थ:-] जो जीव भवभयके हरनेवाले इस सम्यक्त्वकी , शुद्ध ज्ञानकी और चारित्रकी भवछेदक अतुल भक्ति निरंतर करता है, वह कामक्रोधादि समस्त दुष्ट पापसमूहसे मुक्त चित्तवाला जीव-श्रावक हो अथवा संयमी हो-निरंतर भक्त है, भक्त है। २२० । *एकादशपदी = जिनके ग्यारह पद (गुणानुसार भूमिकाएँ) है ऐसे। [श्रावकोंकें निम्नानुसार ग्यारह पद हैं: (१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोषधोपवास, (५) सचित्तत्याग, (६) रात्रिभोजनत्याग, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरंभत्याग, (९) परिग्रहत्याग, (१०) अनुमतित्याग और (११) उदिष्टाहारत्याग। उनमें छठवें पद तक (छठवीं प्रतिमा तक) जधन्य श्रावक हैं, नौवें पद तक मध्यम श्रावक है और दसवें तथा ग्यारहवें पद पर हों वे उत्तम श्रावक हैं। यह सब पद सम्यक्त्व पूर्वक , हठ रहित सहज दशाके हैं यह ध्यानमें रखने योग्य है।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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