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परम-समाधि अधिकार
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यस्तु धर्म च शुक्लं च ध्यानं ध्यायति नित्यशः। तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने।। १३३ ।।
परमसमाध्यधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम्।
यस्तु सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनलोलुपः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानेन निखिलविकल्पजालनिर्मुक्तनिश्चयशुक्लध्यानेन च अनवरतमखंडाद्वैतसहजचिद्विलासलक्षणमक्षयानन्दाम्भोधिमज्जंतं सकलबाह्यक्रियापराङ्मुखं शश्वदंतःक्रियाधि-करणं स्वात्मनिष्ठनिर्विकल्पपरमसमाधिसंपत्तिकारणाभ्यां ताभ्यां धर्मशुक्लध्यानाभ्यां सदाशिवात्मकमात्मानं ध्यायति हि तस्य खलु जिनेश्वरशासननिष्पन्नं नित्यं शुद्धं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणं शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति।
अन्वयार्थ:-[ यः तु] जो [धर्मं च ] धर्मध्यान [ शुक्लं च ध्यानं ] और शुक्लध्यानको [ नित्यशः ] नित्य [ध्यायति ] ध्याता है, [ तस्य ] उसे [ सामायिकं] सामायिक [ स्थायि] स्थायी है [ इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है।
टीका:-यह, परम-समाधि अधिकारके उपसंहारका कथन है।
जो सकल-विमल केवलज्ञानदर्शनका लोलुप (सर्वथा निर्मल केवलज्ञान और केवलदर्शनकी तीव्र अभिलाषावाला-भावनावाला) परम जिनयोगीश्वर स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान द्वारा और समस्त विकल्पजाल रहित निश्चय-शुक्लध्यान द्वारा-स्वात्मनिष्ठ (निज आत्मामें लीन ऐसी) निर्विकल्प परम समाधिरूप संपत्तिके कारणभूत ऐसे उन धर्म-शुक्ल ध्यानों द्वारा, अखंड-अद्वैत-सहज-चिद्विलासलक्षण (अर्थात् अखंड अद्वैत स्वाभाविक चैतन्यविलास जिसका लक्षण है ऐसे), अक्षय आनंदसागरमें मग्न होनेवाले (डूबनेवाले), सकल बाह्यक्रियासे पराङ्मुख, शाश्वतरूपसे (सदा) अंतःक्रियाके अधिकरणभूत, सदाशिवस्वरूप आत्माको निरंतर ध्याता है, उसे वास्तवमें जिनेश्वरके शासनसे निष्पन्न हुआ, नित्यशुद्ध , त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी परम समाधि जिसका लक्षण है ऐसा, शाश्वत सामायिकव्रत
है।
[अब इस परम-समाधि अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते है:]
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