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नियमसार
२५९
मोहनीयकर्मसमुपजनितस्त्रीपुंनपुंसकवेदहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साभिधाननवनोकषायकलितकलंकपंकात्मकसमस्तविकारजालकं परमसमाधिबलेन यस्तु निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमतपोधनः संत्यजति, तस्य खलु केवलिभट्टारकशासनसिद्धपरमसामायिकाभिधानव्रतं शाश्वतरूपमनेन सूत्रद्वयेन कथितं भवतीति।
(शिखरिणी) त्यजाम्येतत्सर्वं ननु नवकषायात्मकमहं मुदा संसारस्त्रीजनितसुखदुःखावलिकरम्। महामोहान्धानां सततसुलभं दुर्लभतरं समाधौ निष्ठानामनवरतमानन्दमनसाम्।। २१८ ।।
जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणं झाएदि णिचसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।। १३३ ।।
मोहनीयकर्मजनित स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा नामके नौ नोकषायसे होनेवाले कलंकपंकस्वरूप ( मल-कीचड़स्वरूप) समस्त विकारसमूहको परम समाधिके बलसे जो निश्चयरत्नत्रयात्मक परम तपोधन छोड़ता है, उसरे वास्तवमें केवलीभट्टारकके शासनसे सिद्ध हुआ परम सामायिक नामका व्रत शाश्वतरूप है ऐसा इन दो सूत्रोंसे कहा है।
[अब इन १३१–१३२ वी गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] संसारस्त्रीजनित *सुखदुःखावलिका करनेवाला नौ कषायात्मक यह सब ( –नौ नोकषायस्वरूप सर्व विकार) है वास्तवमें प्रमोदसे छोड़ता हूँ-कि जो नौ नोकषायात्मक विकार महामोहान्ध जीवोंको निरंतर सुलभ है तथा निरंतर आनंदित मनवाले समाधिनिष्ठ ( समाधिमें लीन) जीवोंको अति दुर्लभ है। २१८ ।
* सुखदुःखावलि = सुखदुःखकी आवलि; सुखदुःखकी पंक्ति-श्रेणी।। (नौ नोकषायात्मक
विकार संसाररूपी स्त्रीसे उत्पन्न सुखदुःखकी श्रेणीका करनेवाला है।)
जो नित्य उत्तम धर्म-शुक्ल सुध्यानमें ही रत रहे । स्थायी समायिक है उसे,यों केवली शासन कहे ।। १३३।।
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