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नियमसार
२६१
( मंदाक्रांता) शुक्लध्याने परिणतमतिः शुद्धरत्नत्रयात्मा धर्मध्यानेप्यनघपरमानन्दतत्त्वाश्रितेऽस्मिन्। प्राप्नोत्युच्चैरपगतमहदुःखजालं विशालं भेदाभावात् किमपि भविनां वाङ्मनोमार्गदूरम्।। २१९ ।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमसमाध्यधिकारो नवमः श्रुतस्कन्धः।।
[श्लोकार्थ:-] इस अनघ (निर्दोष) परमानंदमय तत्त्वके आश्रित धर्म-ध्यानमें और शुक्लध्यानमें जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है ऐसा शुद्धरत्नत्रयात्मक जीव ऐसे किसी विशाल तत्त्वको अत्यंत प्राप्त करता है कि जिसमेंसे (-जिस तत्त्वमेंसे) महा दुःखसमूह नष्ट हुआ है और जो (तत्त्व) भेदों के अभाव के कारण जीवों को वचन तथा मनके मार्ग से दूर है। २१९।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोके लिये जो सूर्य समान है और पाँच इंद्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें ( अर्थात् श्रीमद्भगवत्-कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभ-मलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) परम-समाधि अधिकार नामका नववाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ।
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