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परम-समाधि अधिकार
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इह हि रागद्वेषाभावादपरिस्पंदरूपत्वं भवतीत्युक्तम्।
यस्य परमवीतरागसंयमिनः पापाटवीपावकस्य रागो वा द्वेषो वा विकृतिं नावतरति, तस्य महानन्दाभिलाषिणः जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य सामायिकनामव्रतं शाश्वतं भवतीति केवलिनां शासने प्रसिद्धं भवतीति।
(मंदाक्रांता) रागद्वेषौ विकृतिमिह तौ नैव कर्तुं समर्थों ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितानीकघोरान्धकारे। आरातीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधिः को निषेधः।। २१३ ।।
टीका:-यहाँ, रागद्वेषके अभावसे 'अपरिस्पंदरूपता होती है ऐसा कहा है।
पापरूपी अटवीको जलाने में अग्नि समान ऐसे जिस परमवीतराग संयमीको राग या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करता, उस महा आनंदके अभिलाषी जीवको-कि जिसे पाँच इंद्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र परिग्रह है उसे-सामायिक नामका व्रत शाश्वत है ऐसा केवलियोंके शासनमें प्रसिद्ध है।
[अब इस १२८ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[श्लोकार्थ:-] जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापसमूहरूपी घोर अंधकारका नाश किया है ऐसा सहज परमानंदरूपी अमृतका पूर ( अर्थात् ज्ञानानंदस्वभावी आत्मतत्त्व) जहाँ निकट है, वहाँ वे रागद्वेष विकृति करनेमें समर्थ नहीं ही हैं। उस नित्य (शाश्वत) समरसमय आत्मतत्त्वमें विधि क्या और निषेध क्या ? ( समरसस्वभावी आत्मतत्त्वमें) 'यह करने योग्य है और यह छोड़ने योग्य है' ऐसे विधिनिषेधके विकल्परूप स्वभाव न होनेसे उस आत्मतत्त्वका दृढ़तासे आलंबन करनेवाले मुनिको स्वभावपरिणमन होनेके कारण समरसरूप परिणाम होते हैं, विधिनिषेधके विकल्परूप-रागद्वेषरूप परिणाम नहीं होते। २१३।
१ अपरिस्पंदरूपता = अकंपता; अक्षुब्धता; समता। २ विकृति = विकार; स्वाभाविक परिणतिसे विरुद्ध परिणति। (परमवीतरागसंयमीको
समता-स्वभावी शुद्धात्मद्रव्यका दृढ़ आश्रय होनेसे विकृतिभूत (विभावभूत) विषमता ( रागद्वेष-परिणति) नहीं होती, परंतु प्रकृतिभूत ( स्वभावभूत) समतापरिणाम होते हैं।)
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