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नियमसार
२५३
केवलिनां शासने तस्य परद्रव्यपराङ्मुखस्य परमवीतरागसम्यग्दृष्टेर्वीतरागचारित्रभाज: सामायिकव्रतं स्थायि भवतीति।
( मंदाक्रांता) आत्मा नित्यं तपसि नियमे संयमे सच्चरित्रे तिष्ठत्युच्चैः परमयमिनः शुद्धदृष्टेर्मनश्चेत्। तस्मिन् बाढं भवभयहरे भावितीर्थाधिनाथे साक्षादेषा सहजसमता प्रास्तरागाभिरामे।। २१२ ।।
जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।। १२८ ।।
यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृतिं न जनयति तु। तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने।।१२८ ।।
निज कारणपरमात्मा सदा निकट है), उस परद्रव्यपराङ्मुख परमवीतराग-सम्यग्दृष्टि वीतराग-चारित्रवंतको सामायिकव्रत स्थायी है ऐसा केवलीयोंने शासनमें कहा है।
[अब इस १२७ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:- ] यदि शुद्धदृष्टिवंत (–सम्यग्दृष्टि) जीव ऐसा समझता है कि परम मुनिको तपमें, नियममें, संयममें और सत्चारित्रमें सदा आत्मा ऊर्ध्व रहता है ( अर्थात् प्रत्येक कार्यमें निरंतर शुद्धात्मद्रव्य ही मुख्य रहता है) तो ( ऐसा सिद्ध हुआ कि) रागके नाशके कारण अभिराम ऐसे उस भवभयहर भावि तीर्थाधिनाथको यह साक्षात् सहज-समता निश्चित है। २१२।
गाथा १२८ अन्वयार्थ:-[ यस्य ] जिसे [ रागः तु] राग या [ द्वेषः तु] द्वेष ( उत्पन्न न होता हुआ) [ विकृति ] विकृति [ न तु जनयति] उत्पन्न नहीं करता, [ तस्य ] उसे [ सामायिकं] सामायिक [ स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है।
*अभिराम = मनोहर; सुंदर, (भवभयके हरनेवाले ऐसे इस भावि तीर्थंकरने रागका नाश किया होनेसे वह मनोहर है।)
नहिं राग अथवा द्वेषसे जो संयमी विकृत लहे । स्थायी समायिक है उसे , यों केवली शासन कहे ।। १२८ ।।
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