________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
२५५
जो दु अट्टं च रुदं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।। १२९ ।।
यस्त्वार्तं च रौद्रं च ध्यानं वर्जयति नित्यशः। तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने।। १२९ ।।
आर्तरौद्रध्यानपरित्यागात् सनातनसामायिकव्रतस्वरूपाख्यानमेतत्।
यस्तु नित्यनिरंजननिजकारणसमयसारस्वरूपनियतशुद्धनिश्चयपरमवीतरागसुखामृतपानपरायणो जीव: तिर्यग्योनिप्रेतावासनारकादिगतिप्रायोग्यतानिमित्तम् आर्तरौद्रध्यानद्वयं नित्यशः संत्यजति , तस्य खलु केवलदर्शनसिद्धं शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति।
(आर्या) इति जिनशासनसिद्धं सामायिकव्रतमणुव्रतं भवति। यस्त्यजति मुनिर्नित्यं ध्यानद्वयमार्तरौद्राख्यम्।। २१४ ।।
गाथा १२९ अन्वयार्थ:-[ यः तु] जो [आर्तं ] आर्त [च] और [ रौद्रं च] रौद्र [ध्यानं ] ध्यानको [ नित्यशः] नित्य [वर्जयति] वर्जता है, [तस्य] उसे [ सामायिकं] सामायिक [ स्थायि ] स्थायी है [ इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है।
टीका:-यह, आर्त और रौद्र ध्यानके परित्याग द्वारा सनातन (शाश्वत ) सामायिकव्रतके स्वरूपका कथन है।
नित्य-निरंजन निज कारणसमयसारके स्वरूपमें नियत (-नियमसे स्थित) शुद्धनिश्चय-परम-वीतराग-सुखामृतके पानमें परायण ऐसा जो जीव तिर्यंचयोनि, प्रेतवास और नारकादिगतिकी योग्यताके हेतुभूत आर्त और रौद्र दो ध्यानोंको नित्य छोड़ता है, उसे वास्तनमें केवलदर्शनसिद्ध (-केवलदर्शनसे निश्चित हुआ) शाश्वत सामायिक व्रत है।
[अब इस १२९ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार, जो मुनि आर्त और रौद्र नामके दो ध्यानोंको नित्य छोड़ते हैं उसे जिनशासनसिद्ध (-जिनशासनसे निश्चित हुआ) अणुव्रतरूप सामायिक-व्रत है। २१४।
रे! आर्त-रौद्र दुध्यानका नित ही जिसे वर्जन रहे । स्थायी समायिक है उसे, यों केवली शासन कहे। १२९ ।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com