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नियमसार
२५१
( मालिनी) इदमिदमघसेनावैजयन्ती हरेत्तां स्फुटितसहजतेजःपुंजदूरीकृतांहः। प्रबलतरतमस्तोमं सदा शुद्धशुद्धं जयति जगति नित्यं चिचमत्कारमात्रम्।। २१० ।।
(पृथ्वी) जयत्यनघमात्मतत्त्वमिदमस्तसंसारकं महामुनिगणाधिनाथहृदयारविन्दस्थितम्। विमुक्तभवकारणं स्फुटितशुद्धमेकान्ततः सदा निजमहिम्नि लीनमपि सदृशां गोचरम्।। २११ ।।
क्योंकि इस लोकमें एक आत्माको (अर्थात् आत्मा सदा एकरूप होनेसे उसे ) निश्चित भवका परिचय बिलकुल नहीं है। इसप्रकार जो भवगुणोंके समूहसे संन्यस्त है (अर्थात् जो शुभअशुभ , राग-द्वेष आदि भवके गुणोंसे-विभावोंसे-रहित है) उसका (-नित्यशुद्ध आत्माका) मैं स्तवन करता हूँ। २०९।
[ श्लोकार्थ:-] सदा शुद्ध-शुद्ध ऐसा यह (प्रत्यक्ष ) चैतन्यचमत्कारमात्र तत्त्व जगतमें नित्य जयवंत है कि जिसने प्रगट हुए सहज तेजःपुंज द्वारा स्वधर्म-त्यागरूप ( मोहरूप) अतिप्रबल तिमिरसमूहको दूर किया है और जो उस अघसेनाकी ध्वजाको हर लेता है। २१०।
[श्लोकार्थ:-] यह अनघ (निर्दोष ) आत्मतत्त्व जयवंत है-कि जिसने संसारको अस्त किया है, जो महामुनिगणके अधिनाथके ( -गणधरोंके ) हृदयारविंदमें स्थित है, जिसने भवका कारण छोड़ दिया है, जो एकांतसे शुद्ध प्रगट हुआ है (अर्थात् जो सर्वथा-शुद्धरूपसे स्पष्ट ज्ञात होता है) तथा जो सदा (टंकोत्कीर्ण चैतन्यसामान्यरूप) निज महिमामें लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियोंको गोचर है। २११ ।
* अघ = दोष; पाप।
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