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परम-समाधि अधिकार
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( अनुष्टुभ् ) कांक्षंत्यद्वैतमन्येपि द्वैतं कांक्षन्ति चापरे। द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमात्मानमभिनौम्यहम्।। २०६ ।।
(अनुष्टुभ् ) अहमात्मा सुखाकांक्षी स्वात्मानमजमच्युतम्। आत्मनैवात्मनि स्थित्वा भावयामि मुहुर्मुहुः ।। २०७ ।।
(शिखरिणी) विकल्पोपन्यासैरलमलममीभिर्भवकरैः अखंडानन्दात्मा निखिलनयराशेरविषयः। अयं द्वैताद्वैतो न भवति ततः कश्चिदचिरात् तमेकं वन्देऽहं भवभयविनाशाय सततम्।। २०८ ।।
(शिखरिणी) सुखं दुःखं योनौ सुकृतदुरितवातजनितं शुभाभावो भूयोऽशुभपरिणतिर्वा न च न च। यदेकस्याप्युच्चैर्भवपरिचयो बाढमिह नो य एवं संन्यस्तो भवगुणगणैः स्तौमि तमहम्।। २०९ ।।
मार्गमें) हम वर्तते हैं। २०५।
[ श्लोकार्थ:-] कोई जीव अद्वैतकी इच्छा करते हैं और अन्य कोई जीव द्वैतकी इच्छा करते हैं; मैं द्वैत और अद्वैतसे विमुक्त आत्माको नमन करता हूँ। २०६ ।
[ श्लोकार्थ:-] मैं-सुखकी इच्छा रखनेवाला आत्मा-अजन्म और अविनाशी ऐसे निज आतमाको आत्मा द्वारा ही आत्मामें स्थित रहकर बारंबार भाता हूँ। २०७।
[ श्लोकार्थ:-] भवके करनेवाले ऐसे इन विकल्प-कथनोंसे बस होओ, बस होओ। जो अखंडानंदस्वरूप है वह ( यह आत्मा) समस्त नयराशिका अविषय है; इसलिये यह कोई (अवर्णनीय ) आत्मा द्वैत या अद्वैतरूप नहीं है ( अर्थात् द्वैत-अद्वैतके विकल्पोंसे पर है)। उसे एकको मैं अल्प कालमें भवभयका नाश करनेके लिये सतत वंदन करता हूँ। २०८।
[ श्लोकार्थ:-] योनिमें सुख और दुःख सुकृत और दुष्कृतके समूहसे होता है (अर्थात् चार गतिके जन्मोंमें सुखदुःख शुभाशुभ कृत्योंसे होता है)। और दूसरे प्रकारसे (-निश्चयनसे), आत्मको शुभका भी अभाव है तथा अशुभ परिणति भी नहीं है-नहीं है,
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